tag:blogger.com,1999:blog-82002651923662668672024-03-12T21:51:54.028-07:00i and politicsAnonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.comBlogger107125tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-57531915676013545102014-02-25T06:40:00.000-08:002014-02-25T06:41:10.382-08:00नीतीश का मास्टर स्ट्रोक? <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
राजनीतिक हलकों में कहा जाता है कि नीतीश के पेट में दांत है. नीतीश को समझना इतना भी आसान नहीं है. और अगर वह चुपचाप कुछ सुन रहे हैं तो परिणाम जरुर दिखेगा. यक़ीनन नीतीश के बारे में ये बातें सोलह आने सच है. बिहार में जिस तरह से राजनीति चल रही है कई लोगों ने नीतीश को असहाय बताना शुरू कर दिया था. नीतीश भी चुपचाप सब सुन रहे थे शायद वक्त का इन्तजार था. नीतीश भी अपने कट्टर प्रतिद्वंदी मोदी को कुछ दिखाना चाहते थे. और इस काम के लिए लालू से अच्छा और कोई नहीं मिल सकता था. नीतीश भी बीजेपी कि रणनीति से अवगत थे. जिस तरह बीजेपी ने लालू कार्ड खेल नीतीश को नीचा दिखाने कि हरसंभव कोशिश कि ठीक उसी तरह नीतीश ने भी लालू कार्ड खेल दिया. राजद के विधायकों को पार्टी से तोड़ने का नीतीश का मुख्य मकसद है मोदी कि ओर से जनता का मुख मोड़ना और नीतीश को पता है इस काम के लिए लालू से अच्छा औजार और कोई नहीं हो सकता. नीतीश ने एक सोची समझी रणनीति के तहत राजद के विधायकों को तोड़ा. नीतीश जानते हैं लालू इस मुद्दे पर ताबड़तोड़ हमले करेंगे और वह भी उनपर. इसका सबसे बड़ा फायदा होगा कि मीडिया में मोदी कि जगह नीतीश और लालू को ज्यादा तवज्जो मिलेगी. दोनों के बीच में जो तकरार होगा उसका फायदा दोनों को मिलेगा. लालू नीतीश को सबक सिखाने कि बात कहेंगे और नीतीश लालू को. और कहीं न कहीं बीजेपी को दूर रखने कि कोशिश कि जायेगी. जाहिर है लालू अगर हमले करेंगे तो मोदी पर भी होगा और नीतीश भी यही चाहते हैं. कुल मिलाकर कहा जाये तो नीतीश ने मास्टर स्ट्रोक लगाया है देखना है परिणाम क्या आता है? दर्शक बनकर देखते रहिये?<br />
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<a href="http://2.bp.blogspot.com/-RD-yt_eCVAU/Uwyrfemb-UI/AAAAAAAAASs/f6hxt1l-jBE/s1600/lalu.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://2.bp.blogspot.com/-RD-yt_eCVAU/Uwyrfemb-UI/AAAAAAAAASs/f6hxt1l-jBE/s1600/lalu.jpg" /></a></div>
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-53609401405844578252014-02-16T07:11:00.001-08:002014-02-16T07:11:09.347-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कोई खादी बेच रहा, कोई खाकी बेच रहा.<br />
कहीं ईमान बिक रहे, कहीं जुबान बिक रहे.<br />
कोई जिस्म बेच रहा, कोई जान बेच रहा.<br />
कहीं लोक बिक रहा, कहीं तंत्र बिक रहा.<br />
कहीं सत्ता बिक रही, कहीं शासन बिक रहा.<br />
कहीं रिश्ते बिक रहे, कहीं रंग बिक रहा.<br />
कहीं राजा बिक रहा, कहीं रंक बिक रहा.<br />
चाहे जितना भी कुछ कह लो,<br />
जो भी जतन करो,<br />
इस दुनिया के मेले में<br />
कहीं न कहीं इंसान बिक रहा ?<br />
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<a href="http://4.bp.blogspot.com/-U3rJNMZGJLE/UwDVAcdP9eI/AAAAAAAAASc/r0PsoUSEUQ0/s1600/kashyap.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="http://4.bp.blogspot.com/-U3rJNMZGJLE/UwDVAcdP9eI/AAAAAAAAASc/r0PsoUSEUQ0/s1600/kashyap.jpg" height="213" width="320" /></a></div>
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-37210563331757540952013-11-18T05:31:00.000-08:002013-11-18T05:31:04.775-08:00भीड़तंत्र, वोटतंत्र, लोकतंत्र <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
चुनाव नजदीक आते ही रैलियों का दौर शुरू हो जाता है. कहा जाता है कि रैलियों में आयी भीड़ से संबंधित पार्टी या व्यक्ति का भविष्य पता चलता है. लेकिन यह भी है कि इन रैलियों के आधार पर ही किसी पार्टी या व्यक्ति के राजनीति के बारे में कुछ कह देना उचित नहीं होगा. कभी-कभी भीड़तंत्र वोटतंत्र में तब्दील नहीं हो पाता है. लेकिन यह लोकतंत्र है और यहाँ हर किसी को अधिकार है अपनी बात कहने का. बहुत बार देखा गया है कि किसी नेता के रैली में लोगों का हुजूम रहता है लेकिन चुनाव में उसे पराजय का सामना करना पड़ जाता है. 2004 के लोकसभा चुनाव में राजग के रैलियों में खूब लोग जुटते थे, इंडिया शाइनिंग का नारा भी खूब हवा में था लेकिन परिणाम आया बिल्कुल उल्टा. राजग को हार का सामना करना पड़ा. आजकल भी चुनावों का मौसम चल रहा है तो जाहिर है रैलियों का दौर भी चालू होना लाजिमी है. भारत कि हर छोटी बड़ी पार्टी और हर छोटा बड़ा नेता अपने तरीके से लोगों को लुभाने में लगा है. खूब प्रचार प्रसार हो रहा है. देश कि दो बड़ी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने योद्धाओं और सेनापतियों संग मैदान में आ चुके हैं. एक नमो संग मैदान में तो दूसरा युवराज को लेकर आगे बढ़ रही है. दोनों सेनापति जनता रूपी वोटर को लुभाने में लगे हैं. किसी कि सभा में लाखों कि भीड़ आ रही है तो किसी के लिए लोगों को रोकना पड़ रहा है. एक बड़े घराने का वारिस तो एक अपने दम पर अपना मुकाम बनाने वाला. अगर मीडिया कि माने को एक को लोगों को लुभाने का हर नुस्खा आता है तो एक अपने को भीड़ से जोड़ ही नहीं पाता है. लेकिन फिर वही बात उठती है कि क्या रैलियों में आने वाली भीड़ वोट में तब्दील हो जायेगी. ढेरों उद्धारण भरे पड़े हैं जब भीड़ वोट में तब्दील हो गयी है और पूरी तस्वीर ही बदल गयी. एक दौर इमरजेंसी का था जब लोग इंदिरा गांधी के खिलाफ एकजुट हुए थे, जनता पार्टी के हर नेताओं कि रैली में भीड़ उमड़ती थी. और परिणाम भी वही आया भीड़तंत्र वोटतंत्र में तब्दील हो गयी. कांग्रेस कि सरकार सत्ता से बाहर हो गयी साथ ही इंदिरा भी चुनाव हार गयीं. लोकतांत्रिक देश में यही तो होता है कि हर व्यक्ति को अपना अधिकार है और वह इसका बखूबी इस्तेमाल भी करता है. बंगाल में तीन दशकों से ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाले वामपंथियों को भी भीड़ के वोट में तबदीली ने हराया था. ममता दीदी के रैलियों में उमड़ती भीड़ ही बाद में वोट में तब्दील हो गयी और लोकतंत्र का एक उद्धारण पेश किया. बिहार में भी लालू और राबड़ी के शासन से जनता तंग आ गयी थी, राजग के रैली में उमड़ती भीड़ बताती थी कि कुछ परिवर्तन होगा. नीतीश और भाजपा को सुनने लोगों कि भीड़ आने लगी थी जो बाद में वोट में तब्दील हो गयी, जिसका परिणाम सबके सामने है. खैर जो भी हो लेकिन फिलहाल जो भीड़ मोदी और राहुल के सभा में आ रही है अगर वो वोट में तब्दील हो गयी तो फिर यह तय हो जाएगा कि भीड़तंत्र भी वोटतंत्र में तब्दील हो सकती है जो लोकतंत्र नाम को और मजबूत कर सकती है!</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-42125619246343093692013-11-14T05:39:00.001-08:002013-11-14T05:41:33.303-08:00गरम है दिल्ली का पारा?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
जैसे-जैसे सर्दी बढ़ती जा रही है देश का राजनीतिक माहौल गरमाते जा रहा है. आखिर बात भी है तभी तो सर्दी के मौसम में भी गर्मी लगने लगी है. वैसे तो चार और राज्यों में चुनाव हो रहे हैं लेकिन पांचवे जगह का चुनाव खास है. खास होने का भी तो कारण होना चाहिए तो हैं न कारण, आखिर देश कि राजधानी है. पूरे देश पर यहीं से बैठकर राज किया जाता है. हर किसी कि चाहत होती है कि हस्तिनापुर में सत्ता का स्वाद चखने को मिले. लेकिन सिर्फ सोचने भर से सत्ता नहीं मिलती साम-दाम-दंड-भेद लगाना होता है तभी गद्दी मिलती है. समय के साथ राजनीति भी पेचीदा होती जा रही है. जनता का मूड कब किस ओर चला जाये यह कहना कठिन होता जा रहा है. आखिर हो भी कैसे नहीं अब जनता थोड़ी बहुत जागरूक जो होती जा रही है. और जब बात दिल्ली कि हो तो वहाँ तो माहौल ही अलग है. पूरे देश कि मीडिया जहाँ विराजमान हो वह जगह अलग तो होगा ही. कहते हैं न छपे हुए और दिखे हुए का काफी असर होता है. और राजधानी है देश कि तो बात कुछ तो अलग होगी ही.<br />
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<b>सभी का खिंचा है ध्यान </b></div>
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बहरहाल जो भी हो लेकिन इस बार के दिल्ली चुनाव ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खिंचा है. कहने को तो यहाँ का हर चुनाव अपने आप में खास होता है, लेकिन इस बार का विधानसभा चुनाव अलग है. आंदोलन का सहारे राजनीतिक मंच पर आये आम आदमी पार्टी ने सभी को आकर्षित किया है. लोगों में यह कौतूहल है कि आखिर क्या होगा परिणाम?</div>
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<b>त्रिकोणीय है मुकाबला </b></div>
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कभी दिल्ली चुनाव दो ध्रुवीय होते थे लेकिन इस बार त्रिकोणीय नजर आ रहे हैं. आम आदमी पार्टी के आने के बाद मुकाबला कांग्रेस, भाजपा और आप के बीच हो चुका है. कहने को जो भी कहें लेकिन आप ने अपनी जगह बना ली है. एक विकल्प के तौर पर जिस तरह आप ने लोगों के बीच अपने को लाया है वह रोमांच पैदा करता है. </div>
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<b>कम सीट लेकिन दमदार चुनाव </b></div>
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वैसे तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में मात्र 70 सीट हैं लेकिन हर सीट पर कड़ा मुकाबला है. बीते चुनाव में कांग्रेस ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया था और कुल 43 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था लेकिन इस बार मुकाबला अलग नजर आ रहा है. हो सकता है पार्टी के सीटों में गिरावट भी आये. </div>
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<b>शीला कि सीट पर सबसे कठिन मुकाबला </b></div>
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कहने को तो दिल्ली कि हर सीट पर मुकाबला दिलचस्प है लेकिन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कि सीट पर मुकाबला काफी रोमांचक होने कि संभावना है. आप पार्टी के अरविन्द केजरीवाल और भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता के भी उसी सीट से चुनाव लड़ने के कारण सभी कि नजर इस सीट पर लगी है.</div>
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<b>मीडिया कि है पल-पल नजर </b></div>
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दिल्ली के चुनाव पर पूरे मीडिया जगत कि नजर है. खासकर अरविन्द केजरीवाल कि आप पार्टी पर सबकी नजर है. लगातार यह सुनने को मिलता है कि आप पार्टी को बनाने में मीडिया का बड़ा हाथ है तो जाहिर है चुनाव में भी मीडिया कि दिलचस्पी होगी ही. </div>
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<b>मोदी हैं मुद्दा </b></div>
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बीजेपी मोदी के पोस्टर का सहारा यहाँ भी ले रही है. मोदी को मुख्या भूमिका में रख कर चुनाव लड़ा जा रहा है. हर पार्टी के लिए मोदी मुद्दा हैं कोई मोदी को लाने के लिए चुनाव लड़ रहा है तो कोई मोदी को भगाने को लेकर चुनाव लड़ रहा है. </div>
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<b>और ये हैं मुद्दे </b></div>
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इनके आलावे महंगाई, भ्रष्टाचार, बिजली, जनलोकपाल जैसे मुद्दों को केंद्र में रख कर चुनाव लड़ा जा रहा है. बीजेपी और आप इन सभी मुद्दों पर कांग्रेस को लगातार कटघरे में खड़ा कर रही है, तो कांग्रेस भी अपने को हर सम्भव तरीके से बचाने में लगी है. एक बार फिर से प्याज़ मुख्य रूप से चर्चा में है. </div>
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<b>कांग्रेस कि साख दांव पर </b></div>
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इस चुनाव में वैसे तो हर दल कि प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह साख का सवाल है. पार्टी लगातार सत्ता में है. और आने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर विजयी होना काफी जरुरी है.बीजेपी और मोदी के लिए भी यह चुनाव काफी महत्वपूर्ण हैं. अगर पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो आने वाले चुनावों में पार्टी को इसका फायदा मिल सकता है. और आप के लिए तो यह चुनाव डेब्यू मैच जैसा है अगर चल गया तो फिर बात ही मत पूछिए. कुल मिलाकर काफी दिलचस्प होने वाला है मुकाबला. इन दलों के अलावे भी कई दल चुनाव में हैं जो हो सकता है एक दो सीट जित जाएँ लेकिन सेंटर में यही तीन दल हैं.</div>
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<b>सर्वे पर माथापच्ची </b></div>
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अलग-अलग मीडिया संगठनों के सर्वे में अलग-अलग परिणाम आये हैं. लेकिन कुल मिलकर कांग्रेस के लिए सभी ने खतरे कि घंटी बजाई है. बीजेपी के लिए फायदे कि बात और आप को किंगमेकर का तगमा कई मीडिया संगठनों ने दिया है. </div>
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<b>जनता कोर्ट में फैसला </b></div>
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अब पूरा मामला जनता कोर्ट में है. 4 दिसम्बर को जनता जिसके लिए बटन दबा देगी वही दिल्ली का अगला महाराज हो जायेगा. सभी पार्टियां जनता का दिल जीतने में लगी है. किसी तरह जनता उनके पक्ष में आ जाये बस. अब तो आने वाला समय ही इसकी तस्दीक करेगा कि कौन किंग बनता है और कौन किंगमेकर? तब तक इन्तजार करना ही बेहतर विकल्प है?</div>
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-88975777336301466382013-11-11T05:23:00.004-08:002013-11-11T05:23:44.728-08:00नीतीश जी ये क्या कह दी?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; font-family: Mangal, Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19px; margin-bottom: 10px; padding: 0px; text-align: justify;">
क्या वाकई आतंकियों कि वजह से ही पटना में भाजपा कि हुंकार रैली सफल रही. अगर विस्फोट नहीं होता तो रैली फ्लॉप हो जाती. जी हाँ ऐसा ही कुछ मानना है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का. बकौल कुमार बीजेपी कि रैली पूरी तरह फ्लॉप ही थी. चलिए आपकी बात मान लेते हैं लेकिन कुमार साहब जब लोग पहुँच गए थे तब ब्लास्ट हुआ. और जितने लोग पहुँच गए थे वो तो वैसे भी रहते ही. क्या ब्लास्ट के बाद लोग आने शुरू हुए थे. ऐसा तो कोई शायद ही माने. मैं मानता हूँ आपकी और बीजेपी कि राहें अब अलग हैं और आपका फ़र्ज़ बनता है कि अपनी पार्टी के लिए बेहतर करें. इसके लिए आपका यह हक़ बनता है कि अपने विरोधियों को हर कदम पर अपने से उन्नीस रखें. बात भी वाजिब है आखिर राजनीतिक मक़सद कि पूर्ति के लिए साम-दाम-दंड-भेद लगाना पड़ता है. लेकिन राजनीतिक सुचिता का भी ध्यान रखना जरुरी है. मैं मानता हूँ कि आजकल राजनीति अपने तरीके को बदल चुकी है. संगठन से चलकर अब राजनीति व्यक्ति विशेष तक आ पहुंची है. अब संगठन पर वाक् हमले के साथ ही व्यक्ति पर भी वाक् हमला होता है. नए पुराने सभी मुद्दे को इस तरह से उखाड़ा जाता है कि आप सुन कर शरमा जाएँ लेकिन राजनीति है यहाँ इस शब्द का अर्थ अब बदल चुका है. नीतीश और मोदी के विवाद से हम वाकिफ ही हैं. शायद ही कोई मौका आए जिसमे ये दोनों एक दूसरे कि खिंचाई न करते हों. मोदी ने हुंकार रैली में नीतीश पर जमकर हमला बोला था. बिना नाम लिए मोदी ने नीतीश मामले पर अपनी भड़ास निकली थी. अब सभी को इन्तजार था कि सुशासन बाबू कुछ बोलें. नीतीश मंझे खिलाड़ी हैं हर बात को जानते-समझते हैं. उन्होंने भी सोच समझकर ही बयान दिया. लेकिन नीतीश ऐसा कुछ कह देंगे ऐसा नहीं लगता था. लेकिन राजनीति में हर कुछ वोट बैंक को को ध्यान में रखकर ही किया जाता है. और बिहार में फिलहाल जो स्थिति है उस आधार पर ऐसे बयान के महत्व को समझा जा सकता है. अब जब बयान दे ही दिया है तो कुछ तो सोचा ही होगा नीतीश जी ने. लेकिन राजनीतिक रूप से ऐसे बयान को सही कहना उचित नहीं होगा. बांकी तो समय बतायेगा लेकिन समय और बयान काफी महत्व के होते हैं. </div>
<div style="background-color: white; font-family: Mangal, Arial, Helvetica, sans-serif; font-size: 14px; line-height: 19px; margin-bottom: 10px; padding: 0px; text-align: justify;">
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-138203624076726072013-11-09T06:24:00.002-08:002013-11-09T06:24:42.086-08:00क्या बदल गया राजद?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख राबड़ी देवी ने इस बात छठ लालू कि तस्वीर को सामने रख का मनाया। जाहिर है लालू सजायाफ्ता हैं तो जेल से बाहर तो आ नहीं सकते। और जनता तो आज भी लालू को ही मानती है. एक खास वर्ग में लालू कि जो पहचान है उसको चाह कर भी कोई धुंधला नहीं सकता और आरजेडी उसका फायदा जरुर उठाना चाहेगी। वैसे भी लालू के जेल यात्रा को पार्टी महामंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. पार्टी बबको पूरा भरोसा है कि जनता कि सहानुभूति उनको जरुर मिलेगी। अब जब लालू जेल में हैं तो जाहिर है पार्टी को चलाने के लिए कोई मजबूत कंधा चाहिए। कंधे के रूप में पार्टी ने राबड़ी को चुना। इसके पीछे भी एक बड़ा राज है, लालू कि अनुपस्थिति में पार्टी में बिखराव कि सम्भावना बन सकती थी और अगर तेजस्वी को कमान दी जाती तो कुछ नाराजगी सामने आ सकती थी. लालू ने जो जमीन फिर से तैयार कि थी पार्टी उसका उपयोग करना चाहती थी और लालू नहीं तो राबड़ी को सामने लाकर पार्टी ने अपनी रणनीति जाहिर कर दी. राजद के सामने सबसे बड़ी चुनौती है फिर से सत्ता में वापस आना. जदयू और बीजेपी के गठबंधन के समय राजद कि सम्भावना अच्छी बनती दिख रही थी. कुछ ने कुछ मुद्दे पर जनता सरकार से नाराज थी. सबसे ज्यादा नाराजगी शराब कारोबार नीति और शिक्षक बहाली को लेकर थी. शिक्षकों कि नाराजगी भी नीतीश को झेलनी पड़ी थी और राजद इसका पूरा फायदा उठा रहा था. लेकिन बीजेपी और जदयू के अलगाव ने माहौल बदल दिया लड़ाई अब त्रिकोणीय हो गयी. जदयू नीतीश के भरोसे है तो बीजेपी नमो मंत्र जप रही है तो राजद भावनात्मक माहौल बनाने में लगा है. परिवार को मैदान में उतारकर राजद ने इसका परिचय दे दिया है, साथ ही साथ लालू के जेल जाने को एक षड्यंत्र बताकर भी राजद बाजी अपने पक्ष में करने कि कोशिश में है. पार्टी नेताओं के बीच बिखराव को जिस तरह राजद ने काबू किया है वह आने वाले चुनाव में राजद कि रणनीति को जाहिर करता है. एक नेता और एक वोट के जिस सिद्धांत पर राजद चल रहा है वह आने वाले चुनाव और आगे कि पूरी राजनीति कि तस्वीर दिखाता है. आज लालू भले जेल में हैं लेकिन जनता के बीच आज भी वही हैं. यक़ीनन समय के साथ राजद बदल रहा है. कभी बुरे कारणों से चर्चा में रहने वाले नेता अब आम जन के हितैषी बनकर रहना पसंद कर रहे हैं. जमीनी स्तर पर जिस तरह नेता मेहनत कर रहे हैं वह राजद के बदले स्वरुप को बयां करता है. कभी तकनीक का मजाक उड़ाने वाले राजद के नेतागण आजकल तकनीक से भी जुड़ रहे हैं, साथ ही साथ राजद अब माय(मुस्लिम+यादव ) समीकरण के अलावे और भी समीकरणों पर ध्यान दे रहा है. इसके पीछे ठाकुर नेताओं का राजद में बढ़ता प्रभुत्व भी एक कारण हो सकता है. राजद कि यह बदली रणनीति आने वाले समय में कितनी कारगर होगी यह तो समय बतायेगा लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले समय में राजद पूरी तो नहीं लेकिन थोड़ा बहुत बदला नजर आएगा। आने वाले समय में जनता राजद को राबड़ी या तेजस्वी के रूप में कितना स्वीकार करती है इसका तस्दीक भी हो जायेगा। </div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-78878320184795119912013-11-07T05:49:00.003-08:002013-11-07T05:49:33.272-08:00 मोदी बिहार में हैं मुद्दा?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
राजनीतिक रूप से बिहार फिलहाल काफी अलग दिख रहा है. पहले तो नीतीश और बीजेपी का सम्बन्ध विच्छेद उसके बाद लालू का जेल जाना और फिर नरेंद्र मोदी का बिहार आना और उनके पहले ही रैली में बम विस्फोट हो जाना. कभी लालू को सत्ता से बेदखल करने को जदयू और भाजपा ने हाथ मिलाया था और जनता ने भी मौका दिया इस दोस्ती को. दो बार सत्ता में आना कोई हंसी का खेल नहीं है. लेकिन कहते हैं न ऱाजनीति सम्भावनाओं पर चलती है. यहाँ कौन कब दोस्त बन जाये और कौन आँखें तरेर ले कोई नहीं कह सकता. और यह तो सर्वविदित है कि सब दिन एक जैसा नहीं होता. खैर जो भी हो लेकिन बिहार कि राजनीति अचानक इस तरह करवट लेगी किसी को अंदेशा नहीं था. कहते हैं न एक तूफान पूरा परिदृश्य बदल देता है. ऐसा ही कुछ बिहार में भी हुआ. मोदी के नाम पर ऐसी तनातनी हुई कि पूरा खेल ही बदल गया. लालू जो कभी खेल से बाहर थे अचानक जीतने का फार्मूला बनाने लगे. लेकिन तभी एक तूफान और आया और नीतीश और भाजपा अलग हो गए. और फिर शुरू हुआ असली खेल. नीतीश अपना वोट बैंक साधने में लगे थे तो भाजपा अपनी और इनके बीच लालू भी ख़म ठोककर खड़े होने लगे थे. एक तरफ भाजपा नीतीश को औकात दिखाने कि बात करने लगी तो दूसरी ओर नीतीश को कॉंग्रेस का एजेंट बताने में भी भाजपा को मजा आने लगा. वहीं लालू अपनी गोटी फिट करने में लग गए. लालू को जनता का अच्छा सहयोग भी मिलने लगा लेकिन चारा के खेल ने सारा मामला बिगाड़ दिया. लालू जेल चले गए और पूरा मामला एक बार फिर बदल गया. सत्ता के समय जो भाजपा मोदी को बिहार बुलाने में परहेज़ करती थी मोदी अब उसके तारणहार बन चुके थे. मोदी पहले भी मुद्दा थे और फिर मुद्दा बन गए. आखिर वोट बैंक कि राजनीति ही कुछ ऐसी है. हुंकार भरने मोदी पटना आते इससे पहले बम पटना को दहलाने को तैयार था. लेकिन फिर भी मोदी आये और जनता को साधने का हर प्रयास किया. यकीनन गांधी मैदान कि भीड़ ने मोदी और भगवा खेमे को गदगद कर दिया लेकिन भीड़ और वोट में काफी अंतर होता है. नीतीश जहाँ अपने वोट बैंक को लेकर बेफिक्र हैं तो आरजेडी भी वापसी को लेकर काफी उत्साहित है. कांग्रेस फिलहाल अपने को तलाशती दिख रही है. जहाँ राहुल अकेले दम पर चुनाव में जाने कि बात कर रहे हैं वहीं कुछ कांग्रेसी गठबंधन पर भी ध्यान रख रहे हैं. पासवान एक सेतु के रूप में काम करते नजर आ रहे हैं. खैर जो भी हो मुद्दा फिर मोदी ही हैं. वोट बैंक कि राजनीति का मर्म ही कुछ ऐसा है कि जो वोट दिलावे उसी को टारगेट में रख कर चलना चाहिए. पहले भी मोदी के नाम पर वोट मिलते रहे हैं और हो न हो आने वाले समय में भी मिलने लगे तो कोई ताज्जुब नहीं होगा. खैर जो भी हो अब समय का इन्तजार ही सबसे अच्छा विकल्प नजर आ रहा है? </div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-42053759706911154352013-05-05T23:15:00.000-07:002013-05-05T23:15:04.239-07:00झारखण्ड में बिछ गयी बिसात <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
राजनीति में बड़ा दम है। यह किसी की तकदीर तो किसी की तस्वीर बदल सकती है। और भारत जैसे देश में तो आमजन के सीधा जुड़ाव इसे और खास बनाता है। कहते हैं राजनीति पल-पल बदलती है। ऊंट की तरह यह किस करवट बैठेगी यह कहना बड़ा दुरूह कार्य है। हमारे देश में अलग-अलग राज्यों की राजनीति अलग-अलग तरह की है और सबको केंद्र साधता है। पहले यह बात जमती थी लेकिन गंठबंधन के इस दौर में यह कहना पूरी तरह से उचित नहीं है। अब राज्य भी शक्तिशाली हो चुके हैं। छत्रप अपने दम पर नीति बनवाते हैं। तो कहने में कोई संकोच नहीं है की राज्य की अनदेखी करना अब शायद सम्भव नहीं है। आज कुछ राज्य तो इतने आगे बढ़ चुके हैं की देश-दुनिया में उनके नाम का बोलबाला है वहीँ दूसरी ओर कुछ राज्य इस कदर रसातल में जा रहे हैं की उसकी चर्चा भी सोचने को विवश कर देती है। हमारे देश में झारखण्ड भी ऐसा ही राज्य है। खनिजों से भरपूर यह राज्य आज हर दृष्टी से पीछे जा रहा है। पूरा देश यहाँ के कोयले से जगमग हो रहा है लेकिन यहाँ सिर्फ कालिख ही है। टाटा का डंका पूरी दुनिया में बजता है लेकिन झारखण्ड में अब वह भी खुश नहीं है। बिहार से अलगाव के बाद यकीन था की यह राज्य प्रगति पथ पर निर्बाध तरीके से गमन करेगा लेकिन अफसोस के सिवा कुछ नहीं रहा इस यकीन में। आखिर क्यूँ हो गया हाल बेहाल झारखण्ड का। लोग कहते हैं की राजनीतिक अस्थिरता ही इसका सबसे बड़ा कारण है। जब सरकार ही अस्थिर हो तो विकास कहाँ से होगा। जहाँ लूट की खुली छूट हो वहां विकास की गंगा कैसे प्रवाहित होगी। बाबूलाल ने शासन में पारदर्शिता लाने की सोची तो सत्ता से ही निकलना पड़ा। अर्जुन ने निशाना लगाया लेकिन स्थानीय महाभारत में वह निशाना लगाने में चूक गए। गुरूजी ने गुरु की भूमिका निभानी चाही लेकिन गुरु के अर्थ को वह समझने में शायद नाकाम रहे। मुंडा ने फिर से माइंड लगाया लेकिन वक्त बदल चूका था। आज फिर से राज्य चुनाव के मुहाने पर आ खड़ा है। चुनाव होने की संभावना प्रबल है। सबकी राह अलग-अलग है। बाबूलाल अकेले दम ठोक रहे हैं, भगवा खुद ही अपने घर में घिरी हुई है, हाथ के साथ लोग कैसे जाएँ यह लोग समझ नहीं पा रहे हैं, सुदेश सीमित हैं और तीर कमान से छुटेगा की नहीं यह कहना कठिन है। चाहे जो भी हो लेकिन जीत झारखण्ड की हो तो बेहतर है। फिलहाल आदिवासी बाहुल्य इस रत्न खंड में पारा जोरों का है। आगाज़ तो हो गया है अब अंदाज देखना है। चलिए आज से झारखण्ड चैप्टर शुरू हो गया है जो चलते रहेगा। आज इजाजत देनी होगी मुलाकात जल्द होगी। </div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-35195965498898889502013-05-01T00:17:00.001-07:002013-05-01T00:17:22.102-07:00क्या लालू फिर लौटेंगे?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कहते हैं की जब आदमी का पद चला जाता है तो उसकी पूछ कम हो जाती है। कुछ ऐसा ही हो रहा है बिहार के पुराने राजा लालू यादव के साथ। जब सत्ता थी तो ठाट-बाट देखते ही बनती थी। राजा की चलती का अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है की वो अपने मताहतों से तम्बाकू भी बनवाते थे। लेकिन समय ने करवट लिया और सत्ता से राजा जी को उनकी प्रजा ने विमुख करवा दिया। कहते हैं न पब्लिक है ये सब जानती है। सत्ता से दूर जाते ही राजा जी बेचैन होने लगे लेकिन उपाय के नाम पर कुछ नजर ना आने लगा। सुशासन की आंधी के आगे पुराने राजा रंक बन गए। लगातार सत्ता की लड़ाई में चोट खानी पड़ी उनको। अब तो उनको लगने लगा की अब पाटलिपुत्र की गद्दी मिलने से रही। इधर छुकछुकिया मंत्रालय भी चला गया एक तो करेला दूजे नीम चढ़ा। कलेजे पे पत्थर रख राजा जी गुमसुम रहने लगे। धीरे-धीरे कुछ अपने भी किनारा कर गए। सुशासन की धारा में बहने को हर कोई बेताब होने लगा। पुराने राजा अपने टूटते कुनबे को देख बेचैन होने लगे। अब उनको लगा की कुछ करना होगा तभी कुछ होगा। आखिर पुराने हुए तो क्या हुए हैं तो राजा ही, कुछ भी हो जाए पर बात तो वही रहेगी। और ऊपर से ठहरे समाजवादी तो राजा ने संघर्ष की सोची। उनको लगने लगा की बिना धरातल पर उतरे कुछ नहीं होगा। और इधर धीरे-धीरे सुशासन का मंत्र भी फ्लॉप हो रहा था। राजा जी के लिए मौका उपयुक्त था निकल गए रथ लेकर। गांव-गांव, क़स्बा-क़स्बा, शहर-शहर हर जगह रथ दौड़ने लगी। आवाज उठनी शुरू हो गयी। कभी शिक्षकों के साथ खड़े दिखे तो कभी शासन के सताए लोगों के साथ। सर्दी-गर्मी-बरसात की कोई परवाह नहीं निकल पड़े तो निकल पड़े। खूब लोग जुटने लगे सभा में और राजा जी को तो बोलने में महारत हासिल है ही। खूब उमड़ने लगी भीड़, लगने लगा की राजा जी की बाज़ी लगने वाली है। राजा जी पहली दफा बिल्कुल शांत दिखे। धीरे-धीरे उत्साह बढ़ता गया हर जगह खूब स्वागत किया आवाम ने। राजा जी ने सोचा वक्त मुफीद है और घोषणा कर दी रैला की। आगामी 1 5 मई के लिए निमंत्रण दे डाला जनता को। लालू के बारे में कहा जाता है की जनता की नब्ज पकड़ने में वह माहिर हैं और उनकी नयी रणनीति भी इसी ओर इशारा कर रही है। लगातार जनता के बीच जाना, मुद्दे उठाना और उनकी राय लेना यह तो रणनीति का ही हिस्सा है। प्रदेश के जानकार कहते हैं की लालू को लग गया है की अभी नहीं तो कभी नहीं और वह इसी के अनुसार चल रहे हैं। और बीजेपी और नीतीश के झगड़े ने उन्हें एक और अस्त्र प्रदान कर दिया है। उनके पास वोट बैंक की कमी नहीं है और अगर कुछ वोट बैंक में सेंध लगाने में वो सफल हो गए तो हो सकता है बाज़ी उनके पक्ष में भी जा सकती है। उनके नेताओं का लगातार आम लोगों के बीच ज्यादा से ज्यादा समय गुजरना इसकी पुष्टि करता है। पुराने साथियों का फिर से उनके साथ आना भी उनके मजबूती को दर्शाता है। अपने पुत्र को राजनीति में उतार कर लालू ने यह संकेत दे दिया है की वो ऐसे ही बिहार को जाने नहीं देंगे। युवाओं को ज्यादा से ज्यादा टिकट देने की बात, सवर्णों के साथ समय देना यह लालू की नयी रणनीति की ही तस्दीक है। जनता भी उनको सुन रही है और जानकारों का कहना है की जनता का साथ जिसको मिले वही असली राजा है। लालू जिस तरह से हर किसी के साथ दिखने की कोशिश में लगे हैं वह उनके रणनीति का एक अहम् हिस्सा है। शिक्षकों का बिहार के राजनीति में बहुत दखल रहा है और नीतीश को दुबारा सत्ता में लाने में शिक्षकों का बहुत महत्वपूर्ण हाथ रहा है। लेकिन अब गुरूजी ही नाराज हैं तो जाहिर है उनकी नाराजगी तो झेलनी ही पड़ेगी।सत्ता का रास्ता सडकों से होकर ही जाता है और लालू भी अब इसको समझ गए हैं। खैर आने वाला समय ही इसकी असली तस्वीर पेश करेगा लेकिन इतना तय है की इस बार मुकाबला जबरदस्त होगा। </div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-26052271578202979982013-04-29T23:10:00.001-07:002013-04-29T23:10:38.816-07:00चालू हो गया राजनीतिक तमाशा <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
मौसम गर्मी का है, धूप काफी तेज है। सूरज की प्रचंडता में बदन जला जा रहा है। देश का मिजाज भी गर्म ही है। जब हर तरफ गरमी का एहसास है तो राजनीति कैसे अछूती रहेगी। जनाब राजनीति भी काफी गरम है। इस गरमी का नजारा संसद में देखने को खूब मिल रहा है। लगातार आरोप-प्रत्यारोप का दौर चालू है। अगर गौर करें तो मिशन 2 0 1 4 की तैयारी जोरों पर है। हर दल ख्वाबों में अपने को सत्ता के करीब देख रही है। बड़ी पार्टियों के साथ छोटी पार्टियों को भी लग रहा है की इस बार बिना उनके सहयोग के कोई भी राजा नहीं बन सकता। बिहार, बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, यूपी के छत्रप तो मंद-मंद मुस्कुरा रहें हैं की चाहे जो जितना भी गरजे बर्षा तो उनके सहयोग से ही होगी। कोई कोलगेट पे कलह कर रहा है तो कोई कॉमनवेल्थ के सहारे वेल्थ बनाने की जुगत में है। कोई तीर को कमान में लाने को प्रयासरत है तो कोई हाथी मेरे साथी का जुमला उछाल रहा है। कोई अम्मा तो कोई दीदी को मना रहा है तो कोई साइकिल की रफ़्तार के साथ जाने की सोच रहा है। एक तरफ कमल अपना कुनबा बढ़ाने की जद्दोजहद कर रहा है तो एक तरफ हाथ सबके साथ वाली बात करने में व्यस्त है। कहीं बाबा की ब्रांडिंग हो रही है तो कहीं नमो मंत्र का जाप हो रहा है। कोई साधु संतो के शरण में जा रहा है तो कोई युवाओं को साथ लेकर चलने की बात कर रहा है। कोई लैपटॉप तो कोई घर देने की बात कर रहा है। कोई पिछड़े तो कोई अगड़े की रहनुमाई कर रहा है तो कोई माइनॉरिटी संग मोहब्बत बढ़ा रहा है। लेकिन इतना सब होते हुए भी आम आदमी बिल्कुल गायब है। उसको टॉर्च लेकर ढूंढा जा रहा है। तमाशा तो चालू हो चूका है, तमाशबीन पूरे लाव लश्कर के साथ डट चूके हैं तो चलिए हम भी चलें तमाशा देखने। साथ में कुछ पैसे-वैसे भी लेना मत भूलिएगा कुछ खा-पीकर वापस आएंगे ऐसे थोड़े ही।<br />
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-398287813514072872013-04-16T10:07:00.002-07:002013-04-16T22:01:53.941-07:00 सुशासन बाबू को भगवा का भय?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
फिलहाल गर्मियों का मौसम चल रहा है तो जाहिर सी बात है वातावरण तो गर्म होगा ही। मीडिया में भी गर्मी है रोज-रोज बिना मेहनत के मजेदार खबर मिल जा रही है। आने वाला वर्ष चुनाव का वर्ष है तो राजनीतिक गर्मी भी बढ़े तो हमें ताज्जुब नहीं होनी चाहिए। अब देखिए न बिहार का भी वातावरण गर्म हो रहा है जो दिल्ली तक को गरमा रहा है। बोलते हैं नीतीश तो हिलते हैं कई सारे। वैसे भी नीतीश जी को आजकल कुछ ज्यादा ही गर्मी चढ़ी हुई है, लो क्या बकबास बात कर दी मैंने। आखिर लगातार दूसरी बार पाटलिपुत्र की गद्दी मिली है तो सम्राट क्या ठंडा रहेगा। कोई भी आराम से कह सकता है की गद्दी की गरमी बर्दाश्त करनी बहुत मुश्किल होती है। अपने चारा वाले साहेब खूब जानते हैं, क्या मजेदार तरीके से तम्बाकू खाते गरमी झाड़ते थे। आजकल लालटेन किसी तरह एक बार फिर जले इसके लिए तेल का इंतजाम करते फिर रहे हैं। जाने दीजिए जो हुआ सो हुआ अब आते हैं सुशासन बाबू पे। आजकल सुशासन बाबू पूरे गरम हैं बेल का शर्बत और आम की चटनी भी बेअसर है उनके गरमी पर। अपने चचेरे भाई (राजनीतिक) पर रोज -रोज पिनक रहे हैं। अरे भाई ने कह क्या दिया की सिर्फ सुशील ही नहीं अबकी असली मोदी को भी जगह देना होगा। बाप रे बाप एक तो करेला दूजा नीम चढ़ा। आखिर हो बर्दाश्त उनके चलते ही तो सुशासन बाबू की राजनीत अभी तक बची हुई है नहीं तो मुद्दा तो है ही कहाँ। और लालटेन भी टोपी पर दम लगा दिया है तो कुछ तो करना होगा। भूरा बाल तो साथ नहीं ही देगा कम से कम टोपी वाला तो न बिदके। गरमी में बड़ा राहत होता है टोपी से। सुशासन बाबू सोचे की भगवा झंडा को भपकी देंगे तो वह शांत हो जाएगा। सुशील तो वैसे भी सुशील हैं, लेकिन मामला उल्टा पड़ गया। भगवा रंग इस बार पूरा रंगा रहा एक रंग में और सुशासन बाबू को खूब खरी-खोटी सुननी पड़ी। कभी पाटलिपुत्र वाले ने गुस्सा दिखाया तो कभी हस्तिनापुर वाले ने। नतीजा सुशासन बाबू शांति की और जाने लगे। और तो और जब सुशील ने भी अपना रूप दिखाया तो बाबू को लगा की अब तो बिभीषण भी ललकारने लगा। क्या करें, क्या ना करें चलो किसी संघी को ही मलहम लगाया जाए। आखिर बात बनाने में ही फायदा है। सारा भपकी गीदड़ वाला बन गया। पार्टी में तो शरद भी हैं जो गरमी में भी जमे रहना ही पसंद करते हैं। लेकिन इस बार कुछ गरमी उनको भी लगी लेकिन शांत रहना जैसे उनका परम स्वभाव है सो वो उसी पे चलते हैं। सुशासन बाबू ने त्याग-तपस्या वाले को भी मोर्चा पर लगाया लेकिन बात नहीं बनी। अंत में बाबा के शरण में गए लेकिन वो भी जानते हैं भगवा में बाबाओं की कोई कमी नहीं है। वैसे भी मामला तो हम जैसे लोग ही तय करेंगे लेकिन समय-काल और वर्तमान परिस्थिति में सुशासन बाबू जीत से दूर रह गए। और तो और भगवा वाले अब सोच रहें हैं की जब सुशासन की वाहवाही सुशासन बाबू लूटें तो कुशासन का इल्जाम हम क्यूँ सहें। और इन सारी बातों को सोचकर वह भी मन बना रहें हैं की पाटलिपुत्र की सत्ता के अन्दर रह कर बदनामी मोल क्यूँ लिया जाये तो बाहर रह कर भी थोड़ा तमाशा देखा जाए। चलिए अब थोड़ा दरबार घूम लिया जाए कुछ राजकाज की उलटी-सीधी बात जान ली जाए। क्यूँ सही कहा न चलिए देखें क्या हो रहा है?<br />
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-50570919045833785422013-03-10T23:30:00.000-07:002013-03-10T23:30:06.069-07:00नीतीश का नया पैंतरा?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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आगामी 17 मार्च को बिहार की सत्तासीन पार्टी जनता दल यूनाइटेड दिल्ली में राजनीतिक रैली कर रही है। रैली पार्टी अपने लिए बचे आखिरी मुद्दे बिहार को विशेष राज्य का दर्जा को लेकर कर रही है। खूब उगाही जारी है, पार्टी अपने सभी स्टार नेताओं को इस मोर्चे पर लगा चुकी है। बिहार में तो पार्टी ने खूब कमाया अब बारी दिल्ली की है तो मेहनत तो बनती है न। इधर पार्टी की सत्ता सहयोगी बीजेपी ने भी ठान लिया है की मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी बनाना ही है। अरे भैया सुशासन बाबू तो दिखावे के लिए मोदी का खूब विरोध करते रहे हैं जबकि हकीकत तो यह है की मोदी ही नीतीश के सबसे बड़े तारणहार हैं। आखिर चुनाव में एक मुद्दा तो बन ही जाते हैं मोदी। लेकिन इस बार बात कुछ उल्टी पड़ गयी है। सुशासन बाबू का शासन जनता को खुश नहीं रख पा रहा है। अब बात है की आखिर बिहार में ऐसी नौबत कैसे आ गयी जो लोगों का सरकार से भरोसा उठते जा रहा है। भले ही नीतीश के चम्मच गला फाड़ के कहें की विपक्ष एक साजिश कर रहा है लेकिन सही बात यह है की नीतीश गर्त में जा रहे हैं। लोगों ने एक भरोसा जताया था जो कहीं न कहीं टूट रहा है। और सब को पता ही जब-जब किसी शासन ने जनता का भरोसा तोड़ा है जनता ने उसको तोड़ दिया है। बिहार से बाहर लोगों को जरुर लगता है की नीतीश अच्छा कम कर रहे हैं लेकिन हालत दूसरा है। सिर्फ और सिर्फ सत्ता में रहने का तरीका जानते हैं नीतीश और उसी को लेकर चलते हैं। आज के बिहार में किसी चलती है ठेकेदार, माफिया, दलाल और किसका। शायद ही कोई अधिकारी है जो सिर्फ अपने वेतन की कमाई खाता हो। ईमान जहाँ गिरवी रखा जाये वहां क्या कहना। खुली बहस करा लीजिये मामला साफ़ हो जाएगा। किसी भी स्कूल में जाइये बच्चे पढाई क्या करते हैं आपको खुद समझ में आ जायेगा। प्रशासन ठेकेदारों की तरफदारी में लगा है। एक भी ऐसे लोगों की गिनती बता दीजिये जो सही तरीके से काम कर के इस दौरान आगे बढ़ा हो। मायावी दुनिया बाहर से देखने में बहुत शानदार लगती है लेकिन जैसे ही अंदरखाने आईएगा सब नजर आ जायेगा। सड़क बनवाई आपने लेकिन वह भी केंद्र का पैसा था। कहा जाता है की सही शिक्षक एक समाज को बदल सकता है ,बंधु यहाँ तो शिक्षक को गुंडे की तरह दौड़ा-दौड़ा कर पीटा जा रहा है। माफिया की कमाई करोड़ों में और समाज को सही दिशा देने वाले गुरु की औकात सिर्फ कुछ हजार। वह रे शासन और वह रे शासन करने वाले। जिस आशा और विश्वास से जनता ने आपको चुना आपने उसको मिट्टी पलीद कर दिया। मैं या कोई भी बिहारी विकास के विरोधी कैसे हो सकते हैं लेकिन सरकार को लगता है की हम ऐसे हैं। मैं आजकल बिहार में हूँ और सारी चीजें पाने नग्न आँखों से देख रहा हूँ मैं तो विश्वास के साथ कहता हूँ इसे विकास कतई नहीं कहते हैं। अखबारों को तो आपने खरीद लिया है कम से कम अपने ईमान को भी बरक़रार रखिये। पत्रकार बिहार में खुश हैं की जेपी के इस चेले के राज में खूब मटन-चिकेन हो रहा है। पुराने से लेकर नए सभी लुत्फ़ उठा रहे हैं और जो इससे बाहर हैं उनको शायद ही कोई पूछ रहा है। बिहार विकास करे यह सभी बिहारी चाहते हैं। जो भी हो यह तो कहा ही जा सकता है की जब गुंडे शासन में हों तो फिर किसपे करें यकीं। बहुतों को हो सकता है यह बात चुभे लेकिन दोस्त हकीकत को जरुर समझने की छोटी सी भूल कीजिये। बस बिहार हर तरह से खुशहाल हो।<br />
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-79795525895869624682013-02-06T22:59:00.002-08:002013-02-06T23:01:21.379-08:00बीजेपी की नरेन्द्र-नाथ नीति?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
भारत की राजनीति वर्तमान समय में एक उथलपुथल भरे दौर से गुजर रही है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ मिशन 2014 पर काम कर रही है। चुनौती हर दल में है, लेकिन बीजेपी को छोड़कर ज्यादातर दलों में नेतृत्व करने वाले का नाम स्पष्ट है। बीजेपी ही वह दल है जिसमे लगातार मंथन जारी है। अब सवाल है की आखिर भगवा ध्वज को लेकर पथ संचलन की बागडोर कौन संभालेगा। अभी इसपर कुम्भ में मंथन जारी है। लेकिन मेरे हिसाब से बीजेपी ने भी स्पष्ट तौर पर संकेत दे दिया है। पहले राजनाथ की ताजपोशी फिर मोदी राग यह लक्ष्य की तैयारी नहीं तो क्या है? कमल खिलाने को नरेन्द्र-नाथ की जोड़ी को एक तरह से मैदान में उतार दिया गया है। दोनों को उनके कार्य पर भी लगा दिया गया है। नरेन्द्र युवा भारत और विकास पर ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं तो राजनाथ हिंदुत्व को लेकर चलने की बात कर रहे हैं। एक तरह से ड्राइंग रूम राजनीति करने वालों को शांत रह कर मामला देखने की सलाह दे दी गयी है। नरेन्द्र और नाथ की जोड़ी यूँ ही नहीं बनायीं गयी है इसके पीछे भी कारण रहा है। बीजेपी को दिशानिर्देश देने वाले संघ की मंशा रहती है की उसकी पकड़ हमेशा बनी रही और इस दिशा में इससे फिट जोड़ी शायद वर्तमान में नहीं हो सकती थी। गौर करें तो इस जोड़ी की शुरुआत गुजरात विधानसभा चुनाव के समय ही हो गयी थी। नरेन्द्र के स्वामी विवेकानंद यात्रा में नाथ मुख्य तौर से शामिल थे। चूँकि विवेकानंद का बचपन का नाम भी नरेन्द्रनाथ था तो बीजेपी को भी लगा की क्यूँ न ऐसे की किसी जोड़ी की तस्दीक करायी जाये। और यह सर्वविदित है की नरेन्द्रनाथ ने अखंड भारत को विश्व में अलग पहचान दिलाई। और इस नाम को लेकर नरेन्द्र युवाओं में अपनी अलग पहचान बना चुके हैं, गुजरात में लगातार तीसरी बार सत्ता में आना इसकी सटीक पुष्टि कर देता है। और इस कारण बीजेपी और उसके सलाहकारों को लगा की जब एक नरेन्द्रनाथ इतना बड़ा काम कर सकता है तो अगर दो को मिला कर वर्तमान का नरेन्द्र-नाथ बना दिया जाये तो काम हो सकता है। इसके दो फायदे हैं एक तो युवाओं को लगेगा की उनके युवा भारत का सपना यह जोड़ी साकार कर सकती है और दूसरा की उसके वोट बैंक में भी एक सन्देश जाएगा की बीजेपी अपने पुराने वादों को भूली नहीं है। इसी आधार पर फिलहाल पार्टी ने दो मुद्दे को चुना है एक है युवा और विकास और दूसरा हिंदुत्व। पार्टी को लगता है की यही मुद्दे उसे 2014 में दिल्ली की गद्दी तक ले जाने में सक्षम हैं।इस दिशा में नरेन्द्र-नाथ को लगा भी दिया है। जहाँ नरेन्द्र युवाओं और विकास को टारगेट कर रहे हैं वहीं नाथ साधू-संतों और देशवासियों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश कर रहे हैं की आज भी उनकी पार्टी हिंदुत्व के मुद्दे पर कायम है। मैं आपको बता दूँ की इसकी झलक भी बीते दिनों देखने को मिली। नरेन्द्र ने दिल्ली के एक कॉलेज में आयोजित सभा में इसकी एक बानगी भी दिखा दी। 6 फ़रवरी को आयोजित सभा में नरेन्द्र ने युवाओं के सामने भारत की बात बात की जो हर युवा की सोच है। नरेन्द्र एक अच्छे वक्ता तो हैं ही उन्होंने एक अच्छे प्रशासक होने की भी तस्वीर पेश कर दी है। उनके संबोधन में साफ़ तौर पर यह बात नजर आई की वो 6 करोड़ गुजरातियों की नहीं बल्कि 121 करोड़ भारतियों की चिंता करते हैं। नरेन्द्र ने युवाओं से सहयोग की भी बात भी कही तथा साफ़ कहा की अगर एक सुन्दर और विकसित भारत बनाना है तो ऐसे लोगों को लाना होगा जो कर्म में यकीन रखते हैं। साफ़ है की वो अपनी जगह बनाने की कोशिश करते दिखे लेकिन एक चतुराई से। ये तो हुई नरेन्द्र की बात अब आते हैं नाथ पर जिन्हें इस साल बीजेपी की कमान दी गयी। नाथ साधू-संतों और आम जनमानस को यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं की बीजेपी आज भी हिंदुत्व और राम मंदिर के मुद्दे पर कायम है। वो कभी कुम्भ तो कभी कहीं किसी और नगरी में जाकर अपनी बात की पुष्टि करते फिर रहे हैं। आखिर इतना सब होने के बाद कहाँ शंका है की बीजेपी में तैयारी नहीं हो रही है। मैं कह दूँ तो अनौपचारिक तौर पर सब सेट है बस समय का इन्तजार है। यूथ+अध्यात्म+हिंदुत्व +विकास इस मुद्दे पर बीजेपी पूरी तरह से केन्द्रित हो चुकी है। आगे तो आने वाला समय इसकी पुष्टि कर ही देगा बस एक चतुर सुजान की तरह निगाहें जमाये रखने की जरुरत है।</div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-48088689992633357952013-02-04T23:29:00.000-08:002013-02-04T23:36:52.281-08:00खोल नयन ज्ञान के.......<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
बहुत दिनों से मन में हलचल सी थी की कुछ कलम की कलाकारी की जाये। हमारे अभिन्न माइक्रो यूनिक के निदेशक राजिक राज जी ने कहा कुछ प्रेरणादायक लिखिए। राजिक जी हमारे गुरु हैं तो उनकी बातों की अवहेलना करने की हिम्मत नहीं है मुझमे। मैंने उनकी बातों को ध्यान में रखते हुए कुछ पंक्तियाँ लिखी है जिसकी नज़ीर आपके सामने पेश कर रहा हूँ। <br />
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<strong>खोल नयन ज्ञान के, देख नयी दुनिया</strong><br />
<strong>अज्ञानता के तमस छोड़, जला दीप नया कोई,</strong><br />
<strong>काली निशा के बीच, बन मृगांक(चन्द्रमा) प्रकाश कर,</strong><br />
<strong>निकल लघु पुष्कर से, भागीरथी के राह चल</strong><br />
<strong>बन आशा की तरी(नैया), भवसागर के पार देख</strong><br />
<strong>बगिया में नया कुसुम खिला, सलिल(जल) बन कर उसको सींच</strong><br />
<strong>जीवन बने अनुपम, ऐसा कोई प्रयास कर</strong><br />
<strong>खोल नयन ज्ञान के, देख नयी दुनिया</strong><br />
<strong>बन भारती(सरस्वती) का किंकर(दास), अम्बर पर भी अधिकार जमा</strong><br />
<strong>इस दानव रूपी अंधकार को, भानू(सूर्य) बन कर दूर करो</strong><br />
<strong>जीवन बड़ा अतुल(अनोखा) है, इसको मत बेकार कर</strong><br />
<strong>खोल नयन ज्ञान के,देख नयी दुनिया</strong><br />
<strong>मन में ले नयी अभिलाषा, विश्व विजय का रथ निकाल</strong><br />
<strong>राह कठिन की मत कर परवाह, विजयी पताका फहरा कर </strong><br />
<strong>बन दुनिया का महीपति(राजा).</strong><br />
<strong></strong> </div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-73392186487949684082012-12-15T20:54:00.001-08:002012-12-15T21:08:40.731-08:00आशीष की मौत का जिम्मेदार कौन ? <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
वैसे तो मेरा कस्बाई शहर बांका शांत ही रहता है। यहाँ के लोगों को शांति अत्यंत प्रिय है। लेकिन कभी -कभी नदी भी उफ़नाती है तो आसपास का इलाका डूब जाता है। मेरे शहर में मौसम तो करवट ले ही चुका है। वातावरण में नमी का प्रवेश हो चुका है, लेकिन इस शहर पर इसका असर नहीं है। इस मौसम में शहर का तापमान अचानक गर्म हो गया है। वैसे तो यह शांतप्रिय बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का ठिकाना है लेकिन कभी -कभी इनकी बेवजह की उग्रता भी देखने को मिलती है। कहते हैं न अपनों के बिछड़ने का दर्द अपनों को ही होता है। हमारे यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। बीते 16 दिनों में शहर ने कई लोगों की असलियत को जाना, पहचाना, कितने तरह के दावों को सुना-देखा, महसूस किया लेकिन अंत में निराशा से ही सामना हुआ। जी हाँ, बीते 29 नवंबर को शहर के जगतपुर मोहल्ले के स्कूली छात्र आशीष का अपहरण हो गया था। पुलिस 14 दिसंबर तक उसे खोज लेने की हवाई फायरिंग करती रही और अचानक 15 दिसंबर को बंदूक से छूटे गोली के खाली खोखे की तरह उस मासूम के निर्जीव शरीर को लेकर सामने आई। माता-पिता तो आस लगाये बैठे थे की सुशासन में सब कुछ अच्छा ही होगा, अंत में एक अच्छी खबर मिलेगी, वो अपने लाल को फिर से गले लगा सकेंगे, बहन को उम्मीद थी की भाई को फिर से राखी बांधेंगे, दोस्तों को यकीन था की उनका अपना आशीष फिर से उनके साथ मटरगस्ती करेगा। काश! ऐसा हो पाता, सब की मुरादें पूरी होती, सब के चेहरे पर मुस्कान होती, सब की आस यकीन में बदलती लेकिन हुआ तो जो मंजूरे खुदा था। इस मायावी दुनिया से हटाकर उसे दूर भेज दिया हैवानों ने। क्या कसूर था उसका यह की उसके पिता के पास अपहरणकर्ताओं को देने के लिए 50 लाख रूपये नहीं थे। या फिर वो अपने घर का इकलौता चिराग था? प्रश्न गंभीर है उत्तर इतनी आसानी से नहीं मिलने वाली है। अब एक मूल मुद्दे पर आते हैं की आखिर पुलिस क्या सिर्फ दावे करने के लिए होती है। घटना घटने के बाद ही उसकी नींद क्यूँ टूटती है? विस्मयकारी प्रश्न है, जवाब क्या है पुलिस के पास। क्या आप सिर्फ नाम के रखवाले हैं या कुछ काम के भी है। अरे कब जगियेगा आप ,जागिये आपकी जरुरत है देश के लोगों को। आखिर क्यूँ अपराधियों को आपका डर नहीं है। बांका की पुलिस क्या आप किसी कार्य को करने में सक्षम नहीं हैं या बात कुछ और है? आपके शहर में लगातार घटना हो रही है और आप उत्सव मना रहे हैं। प्रशासन एक तरफ युवा महोत्सव मनाती है और उसके ही शहर में युवा सुरक्षित नहीं है? अरे ये नाटक बंद कीजिये। कुम्भकर्णी नींद से जागिये और अपने काम को सही ढंग से कीजिये। आखिर क्या गुंडे-बदमाश इस काबिल हो गए की वो आपको ही आँख दिखाने लगे और आप इतने मजबूर। अरे जिम्मेदारी लीजिये सिर्फ अख़बारों और विज्ञापनों के माध्यम से अपनी तारीफ मत कीजिये। आपका काम दूसरा है आम लोगों की हिफाजत उसको अच्छे से पूरा करिए। आपको क्या याद दिलाना होगा की आपका क्या काम है। आप व्यापारियों और रसूखदारों के साथ कम समय दीजिये, आम अवाम की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दीजिये। अरे माना की इससे आपके घर की अलीशानता प्रभावित होगी लेकिन आपका काम तो यही है। दूसरी ओर मैं यहाँ के प्रेस से भी एक प्रश्न करना चहुँगा की क्या खबर किसी के जान से भी ज्यादा प्यारी है। मुंबई हमलों के बाद जो इस जमात की थू -थू हुई थी उससे भी कुछ सबक लीजिये। हर चीज़ को खबर की भांति मत देखिये मानवता का भी ख्याल कीजिये। माना की प्रतिस्पर्धा ज्यादा है लेकिन क्या अगर आशीष के बदले आपके घर का चिराग होता तो भी आप ऐसे ही ट्रीट करते। चूँकि मैं भी पत्रकारिता से सम्बन्ध रखता हूँ इस नाते कुछ चीजों को अच्छी तरह जानता हूँ। आपका पत्रकारिता धर्म आपको आम आदमी के हित में बात करने की हिदायत देता है यह शायद आप अच्छी तरह जानते समझते हैं। आप किसी को कुछ दिलाने की लड़ाई उसके हित को देख कर लड़ने की बात कहते हैं लेकिन जब बारी करने की आती है तो आपको सिर्फ अपना और अपने संस्थान का हित याद आता है। मुझे याद है जब मैंने अपने एक स्थानीय दोस्त को कहा था की मैं पत्रकारिता का छात्र हूँ तो वो बड़ा ही विस्मयकारी निगाहों से मुझे घूरने लगा था। आज मुझे लगता है की वो एक हद तक सही था। मैं बहुत दिनों से बांका में हूँ और देखता हूँ की किस तरह अख़बार कुछ खास लोगों की तारीफों के पुल बांधते अघा नहीं रहे हैं। आशीष प्रकरण में निःसंदेह आपने एक अच्छी आवाज़ उठाई लेकिन कहीं न कहीं खबरों की तलाश में आपने पत्रकारिता के लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया। ज्यादा उतावलापन कभी-कभी गलत परिणाम देती है यह आपने आरुषि-हेमराज हत्याकांड के बाद भी नहीं समझी। हो सकता है आपको लगेगा की मैं पगला गया हूँ जो ऐसी बात कह रहा हूँ लेकिन मुझे लगता है अगर आप इस मामले में कुछ बातों को लेकर सब्र कर लेते तो अच्छा रहता । हमारे प्रिय पत्रकारबंधु नैतिकता को किराये पर न रखते हुए काम करें तो राज-समाज के लिए सही रहेगा। देश के चौथे स्तम्भ की गरिमा का थोड़ा बहुत ख्याल करते चलें तो बेहतर होगा। ज्यादा क्या कहूँ न ही पुलिस का कुछ होगा, न ही प्रशासन को कुछ चेतना आएगी और न ही मीडिया कुछ सोचेगा पर जिसका अपना चला गया उसका दुःख कौन बांटेगा इसपर सोचने की जरुरत सभी को है ताकि आगे से और आशीष को जान न गंवानी पड़े। </div>
Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-46767882723381614512012-12-01T20:57:00.000-08:002012-12-01T20:57:35.304-08:00क्या न्याय मिलेगा बीबी शहजादी को?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कहते हैं मानव जीवन के भलाई के लिए समाज का होना परम आवश्यक है। परिवार के बाद समाज ही एक ऐसी संस्था है जहाँ मनुष्य का नैतिक और सांस्कृतिक विकास होता है। कहें तो जीवन रूपी इस नैय्या को भवसागर के पार लगाने में समाज की बहुत ही महती भूमिका होती है। पंच परमेश्वर को पढने के बाद तो लगता है इस न्याय रूपी मंदिर में सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होता है। लेकिन अब दौर जुम्मन शेख और अलगू चौधरी वाला नहीं रहा, अब नियत के मामले में लोग बदल चुके हैं। एक बहुत ही हृदयविदारक घटना ने मुझे अन्दर से समाज और राजनीति को लेकर सोचने को विवश कर दिया है। कभी एक जमाना था जब राजनीती देश को जोड़ने का काम करती थी। समाज के उत्थान के लिए राजनीतिज्ञ आगे रहते थे लेकिन समय बदला, लोगों की जरूरतें बदली और बदल गया सामाजिक ताना-बाना। मैं आजकल बिहार में रह रहा हूँ तो जरुर है की यहाँ की घटनाओं को बारीक़ नजरों से देखूं .कल यानि की शनिवार को एक ऐसी ही खबर जो अख़बारों में प्रमुखता से आई थी, जहाँ तक मैंने पढ़ा एक अख़बार ने तो शानदार तरीके से छापी थी। किस तरह निर्दयी समाज ने एक औरत को तडपा-तडपा के मार दिया। एक तरफ राज्य सरकार महिलाओं के हितों के प्रति अपने वादों को प्रचारित करते रहती है वहीँ दूसरी ओर उसके राज्य के जनप्रतिनिधि तुगलकी फरमान सुनाते फिरते हैं। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ बीबी शहजादी की जिसे तडपा-तडपा के मार दिया गया। पंचायत के प्रमुख की बात न मानने की ऐसी सजा मिली जिसकी कल्पना भी एक सभ्य समाज नहीं कर सकता। एक तरफ हम अपने को न्यायप्रिय देश कहने का दंभ भरते हैं वहीँ दूसरी ओर अपने देश के नागरिकों को ही न्याय नहीं, वाह रे देश और वाह रे तेरा कानून। जी हाँ वह राज्य जहाँ की सरकार पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण देती है वहां भरी पंचायत में ऐसे कृत्य को अंजाम दिया जाता है तो कहने की बात ही क्या? बिहार के पूर्णिया जिले के असियानी गांव में बीबी शहजादी को पहले तो बेवजह तंग करने की साजिश रची गयी फिर उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया। समूचे गांव वालों ने भी गजब के धैर्य दिखाया कोई भी उसकी मदद को नहीं आया। और जब उसके रिश्तेदार आये तो समाज के पहरेदारों ने उन्हें भी धमकी देकर उसे मरने छोड़ देने को कहा । क्या ऐसे ही चलेगी व्यवस्था और ऐसे ही होगा हमारा विकास। किसी के दामन को दागदार कोई कैसे कह सकता है। खैर अगर ऐसा ही होता रहा तो चला अपना देश, क्या लोग ऐसे में बंदूक उठाने को मजबूर नहीं होंगे। और बड़ी बात तो यह की उस मजबूर औरत के नौनिहालों का क्या होगा, कौन लेगा उनकी जिम्मेदारी? कौन देगा उनको माँ का वात्सल्य? क्या इसका जवाब है किसी के पास। क्या किसी के गर्भ में पल रहे बच्चे के बारे में दूसरा ही कुछ कह सकता है, दूसरा ही कुछ भी आरोप लगा सकता है। क्या अब इसका भी प्रमाण देना होगा की किसी के गर्भ में पल रहा बच्चा उसका है की नहीं? क्या एक औरत हमेशा शक की नजरों से ही देखी जाएगी? आखिर इस दकियानूसी विचार वालों से हमें कब छुटकारा मिलेगा या फिर ऐसे ही चलता रहेगा। क्या बीबी शहजादी को इन्साफ मिलेगा या उसके मौत को दबा दिया जायेगा। क्या कहीं इसपर राजनीति तो शुरू नहीं हो जाएगी ये प्रश्न बहुत विचारनीय हैं? क्या जकी अहमद जैसे सरपंच का कुछ होगा या फिर राजनीति की ओट में वह बच निकलेगा। और एक सवाल हमारे समाज से भी की क्या अगर हमारा कोई अपना होता तो हम भी उसे ऐसे ही छोड़ देते। अब जब बीबी शहजादी के बच्चे इन्साफ मांगेंगे तो क्या उनको इन्साफ मिल सकेगा प्रश्न बड़ा है। समय का इंतजार सब सामने आ जायेगा। सड़क पर गाड़ी फिर दौड़ेगी लेकिन क्या पुराने व्यवस्था पर ही या कुछ नया होगा?<br />
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Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-82660130813680072952012-05-25T23:18:00.001-07:002012-05-25T23:18:58.073-07:00अब तो समझिए आडवाणी जी<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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समय बड़ा मूल्यवान होता है. कहते हैं न जो समय को पहचान जाता है वह जीवन के सफ़र में निर्बाध रूप से आगे जाता है. और अगर राजनीति में समय के बारे में जानना है तो आडवाणी जी से अच्छी व्याख्या और कोई नहीं कर सकता. मुंबई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद इसकी पुष्टि और मजबूत हुई है. मन में प्रधानमंत्री पद का सपना संजोये आडवाणी जी कब से बैठे हैं लेकिन मौका नहीं मिला. बहुत बार मौका मिला भी तो शायद भाग्य ने ही साथ नहीं दिया. पार्टी ने 2009 का लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा लेकिन पार्टी सत्ता में नहीं आ सकी . एक बार आस जगी लेकिन अंतत उन्हें निराश ही होना पड़ा. देश के मतदाताओं को शायद वो भरोसा नहीं जगा पाए . 2005 के जिन्ना प्रकरण के बाद ही आडवाणी जी की स्थिति ख़राब होनी शुरू हो चुकी थी लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव और गडकरी की बीजेपी प्रमुख के रूप में ताजपोशी ने उनकी स्थिति स्पष्ट कर दी. आडवाणी जैसे राजनीति के धुरंधरों के बारे में कोई कहे की उन्हें इसका आभास नहीं था तो वो गलत कहता है. लेकिन पद और सत्ता चीज़ ही ऐसी है की किसी को भी अंधी कर देती है. प्रतिष्ठा वश आडवाणी जी को विपक्ष के नेता का पद भी किसी और को देना पड़ा. आडवाणी जैसे चतुर सुजान के लिए यह एक तरह से झटका ही था . जो कभी उनकी बात से बाहर नहीं जाते वो भी धीरे-धीरे आँख दिखाने लगे. गुटबाजी आडवाणी को बहुत महंगी पड़ने लगी. जनाधार का न होना उनके गुट के लिए गले का फांस बन गया. राज्यों के वे नेता भी उनको आँख दिखाने लगे जिनने उनसे ही राजनीति का ककहरा सीखा. मतदाताओं का उनके प्रति बेरुखा व्यवहार भी उनके लिए गलत संदेश लेकर आया . आरएसएस भी उनको नापसंद करने लगा . जिस बीजेपी को उनने मेहनत से सींचा वही उनको जाने की सलाह दे रहा है. इतना कुछ होने के बाद भी आडवाणी जी हर बार एक ही बात कहते और सोचते हैं किसी तरह एक बार देश चलने का मौका मिल जाये. जनता के साथ पार्टी भी किसी नये नेता को चाहती है लेकिन आडवाणी जी जाने को तैयार ही नहीं हैं. ज्यादा तो नहीं लिखना चाहूँगा लेकिन अंत में एक एक बात कहूँगा आडवाणी जी अब तो बालहट छोड़िये और एक सम्मानपूर्वक विदाई ले लीजिए. सभी को लग रहा है की आपके तरकश में कोई तीर नहीं बचा है. और अगर आपको लगता है की आप पद और सत्ता हासिल कर लेंगे तो फिर देखिए. लेकिन हर रोज नया सवेरा होता है और सभी लोग नए तरह का सूरज देखना पसंद करते हैं.</div>
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</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-43203034436351908242012-05-25T01:17:00.001-07:002012-05-25T01:17:47.533-07:00धन के आगे बेबस राजनीति<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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झारखण्ड की राजनीति को लेकर बहुत दिनों से कुछ लिखने का मन हो रहा था. काफी विचार करता की आज कुछ लिख ही डालूँगा लेकिन विचार सही आकार ले नहीं पा रहे थे . लेकिन आज का मुहूर्त शायद बड़ा अच्छा है की आज मैं इस विषय पर कुछ लिखने जा रहा हूँ . अपने नाम के अनुरूप ही इस राज्य की राजनीति भी उलझी हुई है. सरकार बनती भी बड़ी मुश्किल से है और चलती भी बड़ी मुश्किल से है. पहले तो अपने दम पर सरकार बनाने की सोचता ही कोई नहीं है और अगर सोचता भी है तो उसका सपना-सपना ही रह जाता है. तो जनाब मैं बता दूँ की इसकी कारण से तो राजनीति के मामले में यह राज्य खास है. शायद ही कोई मुख्यमंत्री रहा हो जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया हो. और तो और जिसने जितना भी समय सीएम आवास में काटा वह शायद ही कभी चैन की साँस ले पाया. हैं न यहाँ की राजनीति दिलचस्प. राज्य अपने को हमेशा कोसते रहता है की कोई आये और उसका उद्धार करे. लेकिन रामायण के सबरी की तरह यहाँ राम का अवतार हुआ ही कहाँ है. लूट, खसोट मची पड़ी है. हर किसी को कुबेर का खजाना हाथ लगा है, सब की निगाह उसे खाली करने पर लगी है . किस्मत का खेल यहाँ खूब हुआ है. कई खाकपति को अरबपति बनते देखा है इस राज्य ने. नरसिम्हा राव की सरकार बचाने को शिबू सोरेन ने पैसे लिए थे तो खूब हल्ला हंगामा मचा था देश में. लेकिन यहाँ तो बिना पैसे खर्च किए सरकार बनती ही नहीं है. दोष किसी एक पार्टी या लोगों का नहीं है दोषी तो यहाँ भरे पड़े हैं. हर कोई मलाई को बड़े ही टकटकी भरे निगाहों से देखता है और मौका मिलते ही हाथ साफ़ कर देता है . कहने को बीजेपी अपने को पाक साफ़ कहती है लेकिन इसका असली चरित्र यहाँ देखने को मिलता है. सरकार और सत्ता की इसकी भूख क्या है वह यहाँ स्पष्ट नजर आ जाता है. कांग्रेस का अवतार भी यहाँ बुरी आत्मा के रूप में ही हुआ है. किसी तरह सेज सजा मिल जाये यही उसकी कामना रहती है . अब जब दो बड़ी पार्टियाँ ही लाभ के लालच में हर घडी घुमती रहती है तो छोटी पार्टियाँ क्यूँ पीछे रहे. घर का बड़ा ही जब बिगड़ा है तो छोटा भी बिगड़ जाये तो कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए. जेएमम और अन्य पार्टियाँ तो इस फेर में ही रहती से है की कैसे कोई महाजन कहीं से आये और हमें कुछ मिल जाये. ईमान तो कब का बिक चुका है अब खुद को भी बेचने में परहेज़ नहीं रह गया है राजनेताओं को . कहिये कैसी है राजनीति इस प्रदेश की . जहाँ सत्ता के पहरेदार ही बिकने को हर हमेशा तैयार रहते हैं वहां की क्या स्थिति हो सकती है इसका अंदाजा हर किसी को हो हो चुका है. ट्रेड शब्द यहाँ हमेशा ऊफान पर रहता है .आखिर जब बाजार ही बिकने को तैयार बैठा है तो कोई व्यापारी क्यूँ परहेज़ करे. हर दल की जहाँ यही कोशिश रहती है की सत्ता में आओ और रेवड़ी का लुत्फ़ उठाओ. मैं तो अब इतना ही कहना चाहता हूँ की अगर दुसरे देशों के लोगों को भी यहाँ से चुनाव लड़ने की इजाजत दे दी जाये तो धनबल के कारन वह भी चुनाव जीत जाएँ. न भी जीतें तो भी एक बार किस्मत आजमाने इस कसीनो में जरुर आयेंगे. राजनीति को शर्मसार करने के लिए इतना ही काफी नहीं है. अगर नहीं है तो बता दीजिये और भी बहुत कुछ कर सकते हैं यहाँ के नेतागण. ज्यादा फिर किसी दिन आज तक के लिए इतना ही. एक बार सोचिएगा जरुर इस विषय पर वह भी गंभीर रूप से .</div>
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</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-51758923394335455932012-05-24T02:05:00.003-07:002012-05-24T02:05:53.214-07:00राजनीति का धनखंड: झारखण्ड<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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आजकल धन के बारे में देश में और देश के बाहर कुछ ज्यादा ही चर्चा हो रही है . हर तरफ धन की ही बात हो यह एक अजीब तरीके का अहसास दिलाता है . हम जैसे लोगों के लिए तो ऐसे जगह पर बहुत कम स्पेस बचता है. आखिर धन भी तो इस मायावी दुनिया का एक मजबूत स्तम्भ है . इसके बिना शायद ही किसी का काम चले. और अगर बात राजनीति की आती हो और चर्चा धन की ना हो यह तो हो ही नहीं सकता है. धन या अर्थ की राजनीति आज अहम स्थान लेती जा रही है. राजनीत के इस कड़ी में आज मैं झारखण्ड की राजनीति को लेकर चर्चा करूँगा. इस राज्य की स्थापना 2000 से ही यह अमिर राज्य का तमगा हासिल करने की सोचता था, लेकिन कहते हैं न की जिस जगह के राजनेताओं में लक्ष्य का अभाव हो उस जगह का विकास शायद ही कभी हो पाता है . धन की ऐसी माया पड़ी इस राज्य के नेताओं पर की कल तक जो खाने को तरसता था वह स्विस बैंक में खाताधारी हो गया. हैं न एक अजीब सी बिडम्बना, लेकिन यह सत्य है और इससे नाता नहीं तोडा जा सकता है. राज्य चाहे किसी मामले में आगे रहे न रहे लेकिन यहाँ के नेताओं और अधिकारियों के धन की तुलना में बहुत उद्योगपति भी पीछे छुट जाएँ तो ताज्जुब होने वाली कोई बात नहीं है. कोयले की लूट से तो सभी वाकिफ हैं लेकिन यहाँ जनता के निवाले को भी लूटा जा रहा है. देश का कोई भी पैसवाला इन्सान यहाँ से चुनाव जीतने का दावा कर सकता है. इसका तो प्रमाण मिल ही चुका है . पहले केडी सिंह चुनाव जीत जाते हैं तो कभी धूत और मिश्र जैसे लोग चुनाव जितने की की सोचते हैं . कभी प्रदेश के विधायक बिकने को आतुर रहते हैं तो कभी मंत्री. अब आप ही बताईये इस राज्य का क्या हो सकता है. अगर कोई दम लगाकर कहता है ही यहाँ सब बिकाऊ हैं तो क्या वह गलत कहता है. मुझे तो लगता है की हकीकत में बिकाऊ शब्द की परिभाषा यहाँ चरितार्थ होती है. कहने को तो इस राज्य को बने लगभग 12 साल हो चुके हैं और सत्ता और विपक्ष के कई लोगों के दमन में धन लेकर कार्य करने का दाग लग चुका है और यह आज भी जारी है. झारखण्ड को अगर धनखंड कहें तो कोई गलत बात नहीं होगी. आज बस इतना ही आगे फिर आऊंगा आपसे मिलने कुछ नई बात के साथ . </div>
</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-67844937260493295242012-05-23T01:19:00.000-07:002012-05-23T01:19:57.687-07:00राजनीत या अर्थनीत ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="color: #444444; text-align: left;">
<b>आजकल देश में राजनीति को लेकर चर्चा गरम है आप कहेंगे की यह तो सदा से ही रहता है. लेकिन यहाँ जो बाद बदली है वह यह क्या की आजकल राजनीति पहले जैसी नहीं रह गयी है. बहुत से लोग इसके पक्ष में तो बहुत विपक्ष में अपनी दलील देते हैं. एक बात तो बड़ी गौर करने वाली है वह यह की राजनीति और धन के बीच एक गजब की जुगलबंदी हो चूका है . बहुत से लोग तो कहते हैं की बिना धन के राजनीत चल ही नहीं सकती. चुनाव के समय इसका नजारा बड़ा ही शानदार नजर आता है. धन का क्या महत्व है इसका सबसे अच्छा दीदार चुनाव के समय ही दिखता है . बड़े चुनाव ही नहीं छोटे चुनावों में भी इसका खूब जोर चलता है. अभी बिहार में नगरपालिका का चुनाव हुआ है. मैं इस चुनाव में कई चीजों का दर्शक रहा. इन चुनावों को देखने के बाद मैंने जाना की चुनाव का मतलब ही है धनबल. इस अर्थ में मैंने एक चीज़ सीखी की अब राजनीति सिर्फ राजनीति ही नहीं रह गई है इसमें बहुत तरह की अनीति का भी समावेश हो गया है. राजनीति की जगह अर्थनीति ने ले ली है. बिहार चुनाव में मैंने देखा की एक छोटे से वार्ड के चुनाव में भी लाखों का खर्चा आने लगा है . मतदाता अब इस मामले में ज्यादा समझदार हो गया है. वह अब हर किसी से पैसा लेने लगा है . चुनाव में तो उसकी किस्मत ही खुल जाती है , उसके लिए धन कमाने का यह एक बेहतरीन होता है जिसे वह जाने देना नहीं चाहता है . अब आप ही कहें, कैसे न कहा जाये इस राजनीत को अर्थनीत. अब बाहुबल का स्थान धनबल ने ले लिया है . पैसे वाले चुनाव में सफल हो जाएँ को किसी को चौंकना नहीं चाहिए . हर स्तर पर धन का जोर है. इस चुनाव में कई लोगों ने मुझसे कहा दादा पैसा जब मिल रहा है तो हर किसी से क्यूँ ने लिया जाये . मुझे बड़ी ही तकलीफ हुई और शर्म भी आई की क्या ऐसे ही हमारा देश प्रगति करेगा. कई लोगों को तो मैंने समझाया और कई को समझाने के प्रयास में हूँ . अब देखता हूँ कितना सफल हो पता हूँ लेकिन एक बात जो मेरे जेहन से निकलती नहीं है वह यह की क्या राजनीति ऐसे जगह आ पहुंची है . इस विषय पर हम सभी को मिलकर काम करना चाहिए. बस आज इतना ही अगली बार फिर किसी मुद्दे को लेकर हाजिर होऊंगा. </b></div>
</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-43396046738552128612012-05-22T02:22:00.000-07:002012-05-22T02:22:58.210-07:00जेपी, जॉर्ज, नीतीश.....?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
आज बहुत दिनों के बाद कुछ लिखने बैठा हूँ . काफी दिनों से चाहत थी कुछ लिखने की लेकिन किसी कारणवश लिख नहीं पा रहा था. लेकिन आज कुछ लिख कर ही दम लूँगा. मन में तरह-तरह के सवाल हैं , विषय भी काफी हैं लेकिन मैं आज बिहार को लेकर कुछ लिखने जा रहा हूँ. आज मैं बिहार में राजनीति की धुरी बन चुकी पार्टी जनता दल यू के बारे में लिखने की कोशिश करता हूँ . जेपी, जॉर्ज और फिर नीतीश. पार्टी की राजनीत इन्हीं लोगों के आसपास घूमती रही है और फिलवक्त घूम रही है . लेकिन मुझे लगता है आने वाले समय में संक्रमण आने वाला है. जेपी के पाठशाला और जॉर्ज के मार्गदर्शन में पार्टी में एक पीढ़ी विकसित हुई जो अभी अपने उफान पर है. लेकिन एक कहावत है की जिस नदी में तूफान आता है पानी भी उसी का सूखता है . काफी संघर्ष के बाद जब सत्ता का सुख मिलता है तो लोग यह भूलने लगते हैं आगे भी नई पौध लगानी है. अगर हकीकत को देखें तो पार्टी के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है. कैडर तो पार्टी के पास है नहीं और दुसरे दल के नेता भी काफी संख्या में शरण लिए हुए हैं . तो ऐसे में बात उठनी लाज़मी है की पार्टी में आखिर ऐसा हो क्यूँ रहा है . इसका एक ही जवाब है सता. जेपी के पाठशाला से निकले छात्र आज राजनीत के मुकाम पर हैं . लेकिन आज शायद ही आपको कोई मिले जो उस राह पर जाता दिखाई दे . आखिर ऐसा क्यूँ ? यह एक यक्ष प्रश्न है? नीतीश के बाद पार्टी का क्या होगा यह तो आने वाले दिनों में साफ़ हो ही जायेगा लेकिन एक बात जो साफ़ है वह यह की पार्टी की स्थिति इस मामले में कमजोर है. जो जॉर्ज अपने जवानी के दिनों में सिंह की तरह दहाड़ मारते थे आज क्या पार्टी के पास है कोई ऐसा ? इसका उत्तर भी नकारात्मक ही आएगा. क्या नीतीश के तरह कोई है जो देश की राजनीत को प्रभावित कर सके , इसका उत्तर भी नकारात्मक ही आएगा. आखिर पार्टी की स्थिति ऐसी कैसे हो रही है आर इस ओर किसी का क्यूँ नहीं जा रहा है . एक विचार करने वाली बात है .अगर ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब पार्टी एक नाम भर की पार्टी रह जाए. पार्टी के कर्ता-धर्ता आर विधाता को इस ओर ध्यान देना चाहिये. जेपी, जॉर्ज, नीतीश.....? </div>
</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-8605352402462540372012-02-04T00:03:00.000-08:002012-02-04T00:03:11.888-08:00क्या आम युवाओं का कोई मोल नहीं?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
मनमोहन जी ने बहुत दिनों के बाद देश के युवाओं से कुछ अपील की है. उन्होंने युवाओं को देश की राजनीति से जुड़ने को कहा है. बकौल मनमोहन जी युवा ही राजनीति की दशा और दिशा बदल सकते हैं . सिर्फ मनमोहन जी ही नहीं देश के कई और लोग भी इस तरह की बातें कहते रहे हैं . गौर करने की बात है की उनकी कथनी और करनी में क्या किसी तरह की समानता है या फिर 'हाथी के दांत खाने के कुछ और, और दिखाने के कुछ और' वाली ही बात है. आपको लगता होगा की मैं अपने मुद्दे से भटक रहा हूँ, तो चलिए सीधे अपनी बात ही कहता हूँ. सच कहूँ तो मुझे मनमोहन जी की बात से बहुत निराशा हुई है, अब आप कहेंगे जब उन्होंने इतनी अच्छी बात कही तो फिर निराशा काहे की. निराशा इसलिए होती है की इन बातों को सुनते-सुनते तंग आ गया हूँ. आज यह तो कल कोई और इसी तरह की बात करता है लेकिन युवाओं को राजनीति में सही तरीके से प्रवेश कराने की बात कोई नहीं करता? ऐसे समय में सब के मुंह पर ताला लग जाता है.सिर्फ बात तक ही सीमित रह जाते हैं ये लोग जब बात कुछ करने की आती है तो गिरगिट भी रंग बदलने में इनके सामने शर्मा जाता है. अब आप ही कहिये की इस बात से निराशा नहीं होगी तो क्या होगी? युवाओं के नाम पर देश के कुछ घरानों के लोग ही नजर आते हैं, सिर्फ उनमे ही काबिलियत नजर आती है. आम युवा तो सब कुछ होते हुए भी मेहनत का फल नहीं खा पाता है. आखिर वह राजनीति में आकर करे तो करे क्या? जब मेहनत की बारी आती है तो उनको याद किया जाता है और जब फल खाने की बारी आती है तो युवराजों की राह देखी जाती है. वे आयेंगे और मीठे फल का रसास्वादन करेंगे. मकान बनाने में सारी मेहनत तो आम युवा ही करते हैं लेकिन उसका मालिकाना हक़ उनको नहीं मिलता है . चांदी की चम्मच लेकर पैदा होने वाली बात यहाँ चरितार्थ होने लगती है. मनमोहन जी या कोई और जी एक युवा होने के नाते यह कहना चाहूँगा की पहले सचमुच में कुछ करने की सोचिए तब किसी तरह की अपील किया कीजिए. दुःख होता है जब पता चलता है की फलां ने जी तोड़ मेहनत की लेकिन जब बारी आई तो किसी और का नाम सामने आ गया. ज्यादा लिखना तो नहीं चाहता हूँ सिर्फ एक बात युवाओं से कहना चाहता हूँ की क्या हम आम युवाओं को ऐसे ही उपयोग किया जाता रहेगा. आप अपने विचारों को जरुर बताएं. </div>
</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-67669992738798749752012-01-28T22:53:00.000-08:002012-01-28T22:53:40.387-08:00क्या जरुरी है दारु?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;">कभी - कभी मैं सोचता हूँ की आखिर हमारा समाज आज किस ओर जा रहा है. आजकल एक चीज़ का समाज के साथ बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध हो चुका है और इसकी घनिष्टता बढ़ती ही जा रही है. मैं बात कर रहा हूँ शराब की जिसे भदेस भाषा में दारु भी कहते हैं. या यूँ कहें की आज समाज और शराब के बीच बहुत ही कमाल का सम्बन्ध विकसित हो चुका है. चुनाव में या किसी खास तरह के उत्सवों के दौरान पीया जाने वाला शराब आजकल हर समय अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है.मैं बहुत कुछ तो कहना नहीं चाहूँगा लेकिन एक व्यथा जो मन में बार-बार उभरकर आती है उसका वर्णन जरुर करूँगा. कुछ दिनों से मैं अपने शहर और गांव में होने वाले पर्व-त्योहारों में पूरी तरह से संलग्न रह रहा हूँ, इसे भी मैं अपना किस्मत ही मानता हूँ की इस भागदौड़ वाली जिंदगी में यह मौका मुझे मिल पा रहा है. मैं एक चीज़ जो हर पर्व के दौरान देख रहा हूँ की आजकल बिना दारू के पर्व अधूरा है. और अगर किसी को कहें की कम से कम इस दौरान दारू का सेवन न करें तो फिर आपसे बुरा कोई नहीं. एक प्रश्न जो मुझे बहुत परेशान करता है की आखिर हमारा समाज जा कहाँ रहा है. दारु के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. रोटी और बेटी नहीं वरन दारू सबसे जरुरी हो गयी है. मैं बीते दिनों की एक बात कहना चाहता हूँ. मेरे आसपास समाज में ही कोई समारोह था, सारी तैयारी हो चुकी थी. लोग बाग़ भी आने लगे थे. पर कुछ लड़के जो उस समारोह के मुख्य कार्यकर्त्ता थे पता नहीं अचानक कहाँ गायब हो गए. थोड़ी देर बाद वो आये तो मैंने पूछा की क्या भाई कहाँ चले गए थे उनमे से जो सबसे छोटा था वह कहता है की मूड बनाने गए थे. आप खुद अंदाज लगा सकते हैं की कहाँ जा रहे हैं हम और कहाँ जा रहा है हमारा समाज. नैतिकता की परिभाषा अगर यहाँ पर राखी जाये तो शायद उसे भी शर्म आ जाये. दुर्गापूजा हो या सरस्वती पूजा इस दौरान अगर कुछ जरुरी है तो वह है दारु. पता नहीं लोग क्या सोच रहें हैं या किस तरह की सोच है उनकी लेकिन अगर यह नजारा रहा तो वह दिन दूर नहीं जब फिर से हम गुलाम हो जायेंगे. घर तो बर्बाद हो ही रहा है इससे देश को बर्बाद होने में भी दिन नहीं लगेगा. आखिर में एक ही सवाल है की क्या दारू इतनी जरुरी है जो हम उसका गुलाम बनते जा रहे हैं. सोच को बढ़ाना होगा और एक स्वस्थ समाज और देश का निर्माण करना होगा. विचार का विषय है, गंभीरता से सोचना होगा नहीं तो परिणाम तो हमें पता ही है. </span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: left;"> <span style="font-size: large;"><br />
</span></div><div style="text-align: left;"><span style="font-size: large;"> </span></div><div style="text-align: left;"><br />
</div></div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-3440710798556705562012-01-09T23:35:00.000-08:002012-01-09T23:35:33.283-08:00क्या यह पर्व कुछ राह दिखायेगा ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">भारत में चुनाव से बड़ा पर्व शायद ही कोई हो, और हर आम को इसका इन्तजार रहता है. और अभी तो देश के पांच राज्यों में चुनाव की घंटी बज गयी है तो लाजिमी है की मेले की तैयारी भी हो रही होगी. मेले की तैयारी तो हो ही रही है और तमाशबीन भी अपने-अपने उपकरणों के साथ मैदान में आ चुके हैं, अब तो पूरे देश को इन्तजार है, इस मेले में आने वालों का. और अगर इसको मीडिया में जगह न मिले तो यह अधूरा सा लगता है.खासकर उत्तरप्रदेश इस बार कुछ खास की उम्मीद है और पूरा मैदान पट गया है. बीजेपी, कांग्रेस, सपा और बसपा तो मैदान में ख़म ठोक ही रही है साथ ही साथ कई छोटे और मझोले दल भी ताल पर ताल दे रहे हैं. सब को सपने में लखनऊ का ताज नजर आ रहा है और अगर आ रहा है तो वह गद्दी जिसपर वो राज करें और देश दुनिया में अपना रुतबा जाहिर कर सकें. लेकिन इस बार ताज किसके सर लगेगा यह कहना बड़ा कठिन है. लेकिन एक चीज़ जो सबसे ज्यादा दिख रही है वह यह की हर दल जीत के लिए ही प्रयत्नशील हैं राज में नीति गायब सी दिख रही है. बड़ा दुःख होता है रोज चलने वाले बहस में पार्टी के नेता अपने को बेदाग बताते हैं और बहस के बाद दागियों की जमात में भोज खाते नजर आते हैं. टीवी पर जिसे गाली देते नहीं अघाते टीवी के बाद उसके साथ गलबाहियां करते नजर आते हैं, हर पार्टी की चाल तो बदली ही है अब उनका चरित्र भी बदल गया है. ईमानदार तो कोई नजर नहीं आता और अगर आता भी है तो वह मुश्किल से ही नजर आता है. क्या चुनाव में एक दल या एक व्यक्ति ऐसा भी हो जाता है, जो अपने लोगों के साथ-साथ अपने ईमान और धर्म को भी भूल जाएँ. वाह रे लोकतंत्र और इसकी पूजा करने वाले जो किसी की तकदीर क्या बदलेंगे खुद की नयी तस्वीर ही बनाने में मशगूल हैं. खुद पर दया आती है की क्या हम ऐसे ही जमात को अपना प्रतिनिधि बनाते रहेंगे या फिर कुछ बदलाव भी लेन की सोचेंगे. चुनाव तो हर साल आते हैं लेकिन बदलता कुछ भी नहीं है, पता नहीं यह कब बदलेगा और क्या सच में भी कुछ बदलने वाला है. देखिये और चार मार्च का इन्तजार कीजिये और फिर लोकतंत्र के बारे में भी कुछ ख्याल कीजिये. आज बस इतना ही आप भी जरुर अपनी राय दें और बदलाव की शुरुआत करें. </div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-8200265192366266867.post-40769696498166748932011-10-21T22:48:00.000-07:002011-10-21T22:48:58.676-07:00क्या होगा अडवाणी का बेड़ा पार?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">बूढ़ी हड्डी में आई नई जवानी है </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">अडवाणी ने फिर एक जिद ठानी है,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">निकल पड़ें हैं रथ लेकर </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">जनता को जगाने </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">भ्रष्टाचार, महंगाई </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">को देश से भगाने</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">घूम रहे हैं शहर-शहर </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">कर रहे हैं लोगों की जय-जय कार</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">प्रधानमंत्री बनने की हो रही है तैयारी </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">पर पार्टी के लोग ही पड़ रहे हैं भारी,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">मन में रेसकोर्स का तूफान है </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">पीएम की कुर्सी में ही बसती अब उनकी जान है.</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">टीवी-पेपर पर जारी है बहस,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">लेकिन नेताजी दिखते हैं बेबस </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">हर ओर तमाशा चालू है,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">यह आदमी थोड़ा दयालु है,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">रथ का पहिया घूम रहा </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">नेताजी का मन झूम रहा,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">बढ़ने लगा है विश्वास,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">अबकी बहुत है आस </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">बस एक मौके की है तलाश,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">क्या नेताजी का सपना बनेगा झकास,</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">या फिर हो जायेंगे नेताजी खल्लास?</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">अब तो समय बताएगा </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">की नेताजी मुस्कुराएंगे </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">या फिर हारकर राजनीति से बाहर हो जायेंगे</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">करें इंतजार, होगा कुछ अद्भुत चमत्कार </span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;">शायद हो जाये नेताजी का बेड़ा पार?</span></div>
<div style="text-align: left;">
<span class="Apple-style-span" style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
</div>Anonymoushttp://www.blogger.com/profile/15384001791436300758noreply@blogger.com0