Oct 15, 2009

अटपटी सोच

शहर की मारामारी और हम शायद हर किसी को अटपटा सा लग...
शहर की मारामारी और हम शायद हर किसी को अटपटा सा लग रहा होगा की मैं इस पर क्या बकवास लिख रहा हु , या मैं जो भी लिखना चाह रहा हूँ उसका मतलब क्या कुछ है .कुछ खटपट तो जरूर है जिसने मुझे लिखने को मजबूर किया है या हो सकता है मुझे कुछ ऐसा दिखा हो जो की लिखने लायक हो .पर बात अगर मैं कहूँ की ऐसी वैसी नही तो थोड़ा अचरज तो जरूर होगा .खैर मैं फिलहाल नॉएडा में वास कर रहा हूँ एक छोटा सा कमरा है जिसमे जिंदगी के साँस को अन्दर बाहर करता हूँ ,आखिर जरूरी है करना ही पड़ेगा नही तो इस पर लिखूंगा कैसे .खैर जाने दीजिये इन बातो को ये तो टेंशन में आदमी ऐसे ही लिखता रहता है .अब थोडी काम की बात हो जाए अरे पर यहाँ तो मुझे कुछ काम ही नही है ,सुबह उठ कर नहाना ,फिर कॉलेज जन नेट परसमय देना ,एक से एक खतरनाक क्लास करना यही तो है फिलहाल जिंदगी ,पर हाँ एक चीज़ है जो मुझे सोचने को कुछ देर तक विवश करता है वो तब जब मैं बस में सफर करता हूँ .उतनी भीड़ एक दुसरे के उपर आने को आतुर ,खैर बस है तो भीड़ तो होनी ही चाहिए नही तो काम नही चलेगा .मैं सोचता हु की यहाँ की जिंदगी क्या है क्या सोच कर महानगर में लोग आते है जिंदगी बिताने को वो बिता तो रहे है पर जो कल तक गावं में एक दूजे के लिए था वो अब अपने के लिए हो गया .यहाँ आने के बाद भूल जाते है लोग मानवता ,भाईचारा ,बंधुत्व और कितने उपमे से अलंकृत करू शायद कम पड़ जाए .मैं देखता हु की यहाँ जिंदगी है शाम या रात को घर आओ फिर खाना बनाओ फिर खाओ और फिर सुबह उठो और काम पर जाओ .फुरसत मांगे भी नही मिलती अरे कंपनी में और भी समय देना है पैसे की खातिर चाहए कुछ भी हो जाए देश फिर भी गरीबी में ही है .कहाँ से उपाय करे ,अरे मैं तो लग रहा है भटक गया मुद्दे से अरे यही तो होता है हर के साथ यहाँ ?