Jan 28, 2012

क्या जरुरी है दारु?

कभी - कभी मैं सोचता हूँ की आखिर हमारा समाज आज किस ओर जा रहा है. आजकल एक चीज़ का समाज के साथ बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध हो चुका है और इसकी घनिष्टता बढ़ती ही जा रही है. मैं बात कर रहा हूँ  शराब की जिसे भदेस भाषा में दारु भी कहते हैं. या यूँ कहें की आज समाज और शराब के बीच बहुत ही कमाल का सम्बन्ध विकसित हो चुका है. चुनाव में या किसी खास तरह के उत्सवों के दौरान पीया जाने वाला शराब आजकल हर समय अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है.मैं बहुत कुछ तो कहना नहीं चाहूँगा लेकिन एक व्यथा जो मन में बार-बार उभरकर आती है उसका वर्णन जरुर करूँगा. कुछ दिनों से मैं अपने शहर और गांव में होने वाले पर्व-त्योहारों में पूरी तरह से संलग्न रह रहा हूँ, इसे भी मैं अपना किस्मत ही मानता हूँ की इस भागदौड़ वाली जिंदगी में यह मौका मुझे मिल पा रहा है. मैं एक चीज़ जो हर पर्व के दौरान देख रहा हूँ की आजकल बिना दारू के पर्व अधूरा है. और अगर किसी को कहें की कम से कम इस दौरान दारू का सेवन न करें तो फिर आपसे बुरा कोई नहीं. एक प्रश्न जो मुझे बहुत परेशान करता है की आखिर हमारा समाज जा कहाँ रहा है. दारु के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. रोटी और बेटी नहीं वरन दारू सबसे जरुरी हो गयी है. मैं बीते दिनों की एक बात कहना चाहता हूँ. मेरे आसपास समाज में ही कोई समारोह था, सारी तैयारी हो चुकी थी. लोग बाग़ भी आने लगे थे. पर कुछ लड़के जो उस समारोह के मुख्य कार्यकर्त्ता थे पता नहीं अचानक कहाँ गायब हो गए. थोड़ी देर बाद वो आये तो मैंने पूछा की क्या भाई कहाँ चले गए थे उनमे से जो सबसे छोटा था वह कहता है की मूड बनाने गए थे. आप खुद अंदाज लगा सकते हैं की कहाँ जा रहे हैं हम और कहाँ जा रहा है हमारा समाज. नैतिकता की परिभाषा अगर यहाँ पर राखी जाये तो शायद उसे भी शर्म आ जाये. दुर्गापूजा हो या सरस्वती पूजा इस दौरान अगर कुछ जरुरी है तो वह है दारु. पता नहीं लोग क्या सोच रहें हैं या किस तरह की सोच है उनकी लेकिन अगर यह नजारा रहा तो वह दिन दूर नहीं जब फिर से हम गुलाम हो जायेंगे. घर तो बर्बाद हो ही रहा है इससे देश को बर्बाद होने में भी दिन नहीं लगेगा. आखिर में एक ही सवाल है की क्या दारू इतनी जरुरी है जो हम उसका गुलाम बनते जा रहे हैं. सोच को बढ़ाना होगा और एक स्वस्थ समाज और देश का निर्माण करना होगा. विचार का विषय है, गंभीरता से सोचना होगा नहीं तो परिणाम तो हमें पता ही है. 





 

Jan 9, 2012

क्या यह पर्व कुछ राह दिखायेगा ?

भारत में चुनाव से बड़ा पर्व शायद ही कोई हो, और हर आम को इसका इन्तजार रहता है. और अभी तो देश के पांच राज्यों में चुनाव की घंटी बज गयी है तो लाजिमी है की मेले की तैयारी भी हो रही होगी. मेले की  तैयारी तो हो ही रही है और तमाशबीन भी अपने-अपने उपकरणों के साथ मैदान में आ चुके हैं, अब तो पूरे देश को इन्तजार है, इस मेले में आने वालों का. और अगर इसको मीडिया में जगह न मिले तो यह अधूरा सा लगता है.खासकर उत्तरप्रदेश इस बार कुछ खास की उम्मीद है और पूरा मैदान पट गया है. बीजेपी, कांग्रेस, सपा और बसपा तो मैदान में ख़म ठोक ही रही है साथ ही साथ कई छोटे और मझोले दल भी ताल पर ताल दे रहे हैं. सब को सपने में लखनऊ का ताज  नजर आ रहा है और अगर आ रहा है तो वह गद्दी जिसपर वो राज करें और देश दुनिया में अपना रुतबा जाहिर कर सकें. लेकिन इस बार ताज किसके सर लगेगा यह कहना बड़ा कठिन है. लेकिन एक चीज़ जो सबसे ज्यादा दिख रही है वह यह की हर दल जीत के लिए ही प्रयत्नशील हैं राज में नीति गायब सी दिख रही है. बड़ा दुःख होता है रोज चलने वाले बहस में पार्टी के नेता अपने को बेदाग बताते हैं और बहस के बाद दागियों की जमात में भोज खाते नजर आते हैं. टीवी पर जिसे गाली देते नहीं अघाते टीवी के बाद उसके साथ गलबाहियां करते नजर आते हैं, हर पार्टी की चाल तो बदली ही है अब उनका चरित्र भी बदल गया है. ईमानदार तो कोई नजर नहीं आता और अगर आता भी है तो वह मुश्किल से ही नजर आता है. क्या चुनाव में एक दल या एक व्यक्ति ऐसा भी हो जाता है, जो अपने लोगों के साथ-साथ अपने ईमान और धर्म को भी भूल जाएँ. वाह रे लोकतंत्र और इसकी पूजा करने वाले जो किसी की तकदीर क्या बदलेंगे  खुद की नयी तस्वीर ही बनाने में मशगूल हैं. खुद पर दया आती है की क्या हम ऐसे ही जमात को अपना प्रतिनिधि बनाते रहेंगे या फिर कुछ बदलाव भी लेन की सोचेंगे. चुनाव तो हर साल आते हैं लेकिन बदलता कुछ भी नहीं है, पता नहीं यह कब बदलेगा और क्या सच में भी कुछ बदलने वाला है. देखिये और चार मार्च का इन्तजार कीजिये और फिर लोकतंत्र के बारे में भी कुछ ख्याल कीजिये. आज बस इतना ही आप भी जरुर अपनी राय दें और बदलाव की शुरुआत करें.