Feb 25, 2014

नीतीश का मास्टर स्ट्रोक?

राजनीतिक हलकों में कहा जाता है कि नीतीश के पेट में दांत है. नीतीश को समझना इतना भी आसान नहीं है. और अगर वह चुपचाप कुछ सुन रहे हैं तो परिणाम जरुर दिखेगा. यक़ीनन नीतीश के बारे में ये बातें सोलह आने सच है. बिहार में जिस तरह से राजनीति चल रही है कई लोगों ने नीतीश को असहाय बताना शुरू कर दिया था. नीतीश भी चुपचाप सब सुन रहे थे शायद वक्त का इन्तजार था. नीतीश भी अपने कट्टर प्रतिद्वंदी मोदी को कुछ दिखाना चाहते थे. और इस काम के लिए लालू से अच्छा और कोई नहीं मिल सकता था. नीतीश भी बीजेपी कि रणनीति से अवगत थे. जिस तरह बीजेपी ने लालू कार्ड खेल नीतीश को नीचा दिखाने कि हरसंभव कोशिश कि ठीक उसी तरह नीतीश ने भी लालू कार्ड खेल दिया. राजद के विधायकों को पार्टी से तोड़ने का नीतीश का मुख्य मकसद है मोदी कि ओर से जनता का मुख मोड़ना और नीतीश को पता है इस काम के लिए लालू से अच्छा औजार और कोई नहीं हो सकता.  नीतीश ने एक सोची समझी रणनीति के तहत राजद के विधायकों को तोड़ा.  नीतीश जानते हैं लालू इस मुद्दे पर ताबड़तोड़ हमले करेंगे और वह  भी उनपर. इसका सबसे बड़ा फायदा होगा कि मीडिया में मोदी कि जगह नीतीश और लालू को ज्यादा तवज्जो मिलेगी.  दोनों के बीच में जो तकरार होगा उसका फायदा दोनों को मिलेगा.  लालू नीतीश को सबक सिखाने कि बात कहेंगे और नीतीश लालू को. और कहीं न कहीं बीजेपी को दूर रखने कि कोशिश कि जायेगी. जाहिर है लालू अगर हमले करेंगे तो मोदी पर भी होगा और नीतीश भी यही चाहते हैं. कुल मिलाकर कहा जाये तो नीतीश ने मास्टर स्ट्रोक लगाया है देखना है परिणाम क्या आता है? दर्शक बनकर देखते रहिये?

Feb 16, 2014

कोई खादी बेच रहा, कोई खाकी बेच रहा.
कहीं ईमान बिक रहे, कहीं जुबान बिक रहे.
कोई जिस्म बेच रहा, कोई जान बेच रहा.
कहीं लोक बिक रहा, कहीं तंत्र बिक रहा.
कहीं सत्ता बिक रही, कहीं शासन बिक रहा.
कहीं रिश्ते बिक रहे, कहीं रंग बिक रहा.
कहीं राजा बिक रहा, कहीं रंक बिक रहा.
चाहे जितना भी कुछ कह लो,
जो भी जतन करो,
इस दुनिया के मेले में
कहीं न कहीं इंसान बिक रहा ?

Nov 18, 2013

भीड़तंत्र, वोटतंत्र, लोकतंत्र

चुनाव नजदीक आते ही रैलियों का दौर शुरू हो जाता है. कहा जाता है कि रैलियों में आयी भीड़ से संबंधित पार्टी या व्यक्ति का भविष्य पता चलता है. लेकिन यह भी है कि इन रैलियों के आधार पर ही किसी पार्टी या व्यक्ति के राजनीति के बारे में कुछ कह देना उचित नहीं होगा. कभी-कभी भीड़तंत्र वोटतंत्र में तब्दील नहीं हो पाता है. लेकिन यह लोकतंत्र है और यहाँ हर किसी को अधिकार है अपनी बात कहने का. बहुत बार देखा गया है कि किसी नेता के रैली में लोगों का हुजूम रहता है लेकिन चुनाव में उसे पराजय का सामना करना पड़ जाता है. 2004 के लोकसभा चुनाव में राजग के रैलियों में खूब लोग जुटते थे, इंडिया शाइनिंग का नारा भी खूब हवा में था लेकिन परिणाम आया बिल्कुल उल्टा. राजग को हार का सामना करना पड़ा. आजकल भी चुनावों का मौसम चल रहा है तो जाहिर है रैलियों का दौर भी चालू होना लाजिमी है. भारत कि हर छोटी बड़ी पार्टी और हर छोटा बड़ा नेता अपने तरीके से लोगों को लुभाने में लगा है. खूब प्रचार प्रसार हो रहा है. देश कि दो बड़ी पार्टियां भाजपा और कांग्रेस अपने-अपने योद्धाओं और सेनापतियों संग मैदान में आ चुके हैं. एक नमो संग मैदान में तो दूसरा युवराज को लेकर आगे बढ़ रही है. दोनों सेनापति जनता रूपी वोटर को लुभाने में लगे हैं. किसी कि सभा में लाखों कि भीड़ आ रही है तो किसी के लिए लोगों को रोकना पड़ रहा है. एक बड़े घराने का वारिस तो एक अपने दम पर अपना मुकाम बनाने वाला. अगर मीडिया कि माने को एक को लोगों को लुभाने का हर नुस्खा आता है तो एक अपने को भीड़ से जोड़ ही नहीं पाता है. लेकिन फिर वही बात उठती है कि क्या रैलियों में आने वाली भीड़ वोट में तब्दील हो जायेगी. ढेरों उद्धारण भरे पड़े हैं जब भीड़ वोट में तब्दील हो गयी है और पूरी तस्वीर ही बदल गयी. एक दौर इमरजेंसी का था जब लोग इंदिरा गांधी के खिलाफ एकजुट हुए थे, जनता पार्टी के हर नेताओं कि रैली में भीड़ उमड़ती थी. और परिणाम भी वही आया भीड़तंत्र वोटतंत्र में तब्दील हो गयी. कांग्रेस कि सरकार सत्ता से बाहर हो गयी साथ ही इंदिरा भी चुनाव हार गयीं. लोकतांत्रिक देश में यही तो होता है कि हर व्यक्ति को अपना अधिकार है और वह इसका बखूबी इस्तेमाल भी करता है. बंगाल में तीन दशकों से ज्यादा समय तक सत्ता में रहने वाले वामपंथियों को भी भीड़ के वोट में तबदीली ने हराया था. ममता दीदी के रैलियों में उमड़ती भीड़ ही बाद में वोट में तब्दील हो गयी और लोकतंत्र का एक उद्धारण पेश किया. बिहार में भी लालू और राबड़ी के शासन से जनता तंग आ गयी थी, राजग के रैली में उमड़ती भीड़ बताती थी कि कुछ परिवर्तन होगा. नीतीश और भाजपा को सुनने लोगों कि भीड़ आने लगी थी जो बाद में वोट में तब्दील हो गयी, जिसका परिणाम सबके सामने है. खैर जो भी हो लेकिन फिलहाल जो भीड़ मोदी और राहुल के सभा में आ रही है अगर वो वोट में तब्दील हो गयी तो फिर यह तय हो जाएगा कि भीड़तंत्र भी वोटतंत्र में तब्दील हो सकती है जो लोकतंत्र नाम को और मजबूत कर सकती है!

Nov 14, 2013

गरम है दिल्ली का पारा?

जैसे-जैसे सर्दी बढ़ती जा रही है देश का राजनीतिक माहौल गरमाते जा रहा है. आखिर बात भी है तभी तो सर्दी के मौसम में भी गर्मी लगने लगी है. वैसे तो चार और राज्यों में चुनाव हो रहे हैं लेकिन पांचवे जगह का चुनाव खास है. खास होने का भी तो कारण होना चाहिए तो हैं न कारण, आखिर देश कि राजधानी है. पूरे देश पर यहीं से बैठकर राज किया जाता है. हर किसी कि चाहत होती है कि हस्तिनापुर में सत्ता का स्वाद चखने को मिले. लेकिन सिर्फ सोचने भर से सत्ता नहीं मिलती साम-दाम-दंड-भेद लगाना होता है तभी गद्दी मिलती है. समय के साथ राजनीति भी पेचीदा होती जा रही है. जनता का मूड कब किस ओर चला जाये यह कहना कठिन होता जा रहा है. आखिर हो भी कैसे नहीं अब जनता थोड़ी बहुत जागरूक जो होती जा रही है. और जब बात दिल्ली कि हो तो वहाँ तो माहौल ही अलग है. पूरे देश कि मीडिया जहाँ विराजमान हो वह जगह अलग तो होगा ही. कहते हैं न छपे हुए और दिखे हुए का काफी असर होता है. और राजधानी है देश कि तो बात कुछ तो अलग होगी ही.
सभी का खिंचा है ध्यान 
बहरहाल जो भी हो लेकिन इस बार के दिल्ली चुनाव ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खिंचा है. कहने को तो यहाँ का हर चुनाव अपने आप में खास होता है, लेकिन इस बार का विधानसभा चुनाव अलग है. आंदोलन का सहारे राजनीतिक मंच पर आये आम आदमी पार्टी ने सभी को आकर्षित किया है. लोगों में यह कौतूहल है कि आखिर क्या होगा परिणाम?
त्रिकोणीय है मुकाबला 
कभी दिल्ली चुनाव दो ध्रुवीय होते थे लेकिन इस बार त्रिकोणीय नजर आ रहे हैं. आम आदमी पार्टी के आने के बाद मुकाबला कांग्रेस, भाजपा और आप के बीच हो चुका है. कहने को जो भी कहें लेकिन आप ने अपनी जगह बना ली है. एक विकल्प के तौर पर जिस तरह आप ने लोगों के बीच अपने को लाया है वह रोमांच पैदा करता है. 
कम सीट लेकिन दमदार चुनाव 
वैसे तो दिल्ली विधानसभा चुनाव में मात्र 70 सीट हैं लेकिन हर सीट पर कड़ा मुकाबला है. बीते चुनाव में कांग्रेस ने काफी अच्छा प्रदर्शन किया था और कुल 43 सीटों पर कब्ज़ा जमाया था लेकिन इस बार मुकाबला अलग नजर आ रहा है. हो सकता है पार्टी के सीटों में गिरावट भी आये. 
शीला कि सीट पर सबसे कठिन मुकाबला 
कहने को तो दिल्ली कि हर सीट पर मुकाबला दिलचस्प है लेकिन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित कि सीट पर मुकाबला काफी रोमांचक होने कि संभावना है. आप पार्टी के अरविन्द केजरीवाल और भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष विजेंद्र गुप्ता के भी उसी सीट से चुनाव लड़ने के कारण सभी कि नजर इस सीट पर लगी है.
मीडिया कि है पल-पल नजर 
दिल्ली के चुनाव पर पूरे मीडिया जगत कि नजर है. खासकर अरविन्द केजरीवाल कि आप पार्टी पर सबकी नजर है. लगातार यह सुनने को मिलता है कि आप पार्टी को बनाने में मीडिया का बड़ा हाथ है तो जाहिर है चुनाव में भी मीडिया कि दिलचस्पी होगी ही. 
मोदी हैं मुद्दा 
बीजेपी मोदी के पोस्टर का सहारा यहाँ भी ले रही है. मोदी को मुख्या भूमिका में रख कर चुनाव लड़ा जा रहा है. हर पार्टी के लिए मोदी मुद्दा हैं कोई मोदी को लाने के लिए चुनाव लड़ रहा है तो कोई मोदी को भगाने को लेकर चुनाव लड़ रहा है. 
और ये हैं मुद्दे 
इनके आलावे महंगाई, भ्रष्टाचार, बिजली, जनलोकपाल जैसे मुद्दों को केंद्र में रख कर चुनाव लड़ा जा रहा है. बीजेपी और आप इन सभी मुद्दों पर कांग्रेस को लगातार कटघरे में खड़ा कर रही है, तो कांग्रेस भी अपने को हर सम्भव तरीके से बचाने में लगी है. एक बार फिर से प्याज़ मुख्य रूप से चर्चा में है. 
कांग्रेस कि साख दांव पर 
इस चुनाव में वैसे तो हर दल कि प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, लेकिन कांग्रेस के लिए यह साख का सवाल है. पार्टी लगातार सत्ता में है. और आने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर विजयी होना काफी जरुरी है.बीजेपी और मोदी के लिए भी यह चुनाव काफी महत्वपूर्ण हैं. अगर पार्टी का प्रदर्शन अच्छा रहता है तो आने वाले चुनावों में पार्टी को इसका फायदा मिल सकता है. और आप के लिए तो यह चुनाव डेब्यू मैच जैसा है अगर चल गया तो फिर बात ही मत पूछिए. कुल मिलाकर काफी दिलचस्प होने वाला है मुकाबला. इन दलों के अलावे भी कई दल चुनाव में हैं जो हो सकता है एक दो सीट जित जाएँ लेकिन सेंटर में यही तीन दल हैं.
सर्वे पर माथापच्ची 
अलग-अलग मीडिया संगठनों के सर्वे में अलग-अलग परिणाम आये हैं. लेकिन कुल मिलकर कांग्रेस के लिए सभी ने खतरे कि घंटी बजाई है. बीजेपी के लिए फायदे कि बात और आप को किंगमेकर का तगमा कई मीडिया संगठनों ने दिया है. 
जनता कोर्ट में फैसला 
अब पूरा मामला जनता कोर्ट में है. 4 दिसम्बर को जनता जिसके लिए बटन दबा देगी वही दिल्ली का अगला महाराज हो जायेगा. सभी पार्टियां जनता का दिल जीतने में लगी है. किसी तरह जनता उनके पक्ष में आ जाये बस. अब तो आने वाला समय ही इसकी तस्दीक करेगा कि कौन किंग बनता है और कौन किंगमेकर? तब तक इन्तजार करना ही बेहतर विकल्प है?



Nov 11, 2013

नीतीश जी ये क्या कह दी?

क्या वाकई आतंकियों कि वजह से ही पटना में भाजपा कि हुंकार रैली सफल रही. अगर विस्फोट नहीं होता तो रैली फ्लॉप हो जाती.  जी हाँ ऐसा ही कुछ मानना है बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का. बकौल कुमार बीजेपी कि रैली पूरी तरह फ्लॉप ही थी. चलिए आपकी बात मान लेते हैं लेकिन कुमार साहब जब लोग पहुँच गए थे तब ब्लास्ट हुआ. और जितने लोग पहुँच गए थे वो तो वैसे भी रहते ही. क्या ब्लास्ट के बाद लोग आने शुरू हुए थे. ऐसा तो कोई शायद ही माने.  मैं मानता हूँ आपकी और बीजेपी कि राहें अब अलग हैं और आपका फ़र्ज़ बनता है कि अपनी पार्टी के लिए बेहतर करें.  इसके लिए आपका यह हक़ बनता है कि अपने विरोधियों को हर कदम पर अपने से उन्नीस रखें. बात भी वाजिब है आखिर राजनीतिक मक़सद कि पूर्ति के लिए साम-दाम-दंड-भेद लगाना पड़ता है. लेकिन राजनीतिक सुचिता का भी ध्यान रखना जरुरी है. मैं मानता हूँ कि आजकल राजनीति अपने तरीके को बदल चुकी है. संगठन से चलकर अब राजनीति व्यक्ति विशेष तक आ पहुंची है. अब संगठन पर वाक् हमले के साथ ही व्यक्ति पर भी वाक् हमला होता है. नए पुराने सभी मुद्दे को इस तरह से उखाड़ा जाता है कि आप  सुन कर शरमा जाएँ लेकिन राजनीति है यहाँ इस शब्द का अर्थ अब बदल चुका है. नीतीश और मोदी के विवाद से हम वाकिफ ही हैं. शायद ही कोई मौका आए जिसमे ये दोनों एक दूसरे कि खिंचाई न करते हों. मोदी ने हुंकार रैली में नीतीश पर जमकर हमला बोला था. बिना नाम लिए मोदी ने नीतीश मामले पर अपनी भड़ास निकली थी. अब सभी को इन्तजार था कि सुशासन बाबू कुछ बोलें.  नीतीश मंझे खिलाड़ी हैं हर बात को जानते-समझते हैं. उन्होंने भी सोच समझकर ही बयान दिया. लेकिन नीतीश ऐसा कुछ कह देंगे ऐसा नहीं लगता था. लेकिन राजनीति में हर कुछ वोट बैंक को को ध्यान में रखकर ही किया जाता है. और बिहार में फिलहाल जो स्थिति है उस आधार पर ऐसे बयान के महत्व को समझा जा सकता है. अब जब बयान दे ही दिया है तो कुछ तो सोचा ही होगा नीतीश जी ने. लेकिन राजनीतिक रूप से ऐसे बयान को सही कहना उचित नहीं होगा.  बांकी तो समय बतायेगा लेकिन समय और बयान काफी महत्व के होते हैं.  

Nov 9, 2013

क्या बदल गया राजद?

राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख राबड़ी देवी ने इस बात छठ लालू कि तस्वीर को सामने रख का मनाया। जाहिर है लालू सजायाफ्ता हैं तो जेल से बाहर तो आ नहीं सकते। और जनता तो आज भी लालू को ही मानती है. एक खास वर्ग में लालू कि जो पहचान है उसको चाह कर भी कोई धुंधला नहीं सकता और आरजेडी उसका फायदा जरुर उठाना चाहेगी। वैसे भी लालू के जेल यात्रा को पार्टी महामंडित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. पार्टी बबको पूरा भरोसा है कि जनता कि सहानुभूति उनको जरुर मिलेगी। अब जब लालू जेल में हैं तो जाहिर है पार्टी को चलाने के लिए कोई मजबूत कंधा चाहिए। कंधे के रूप में पार्टी ने राबड़ी को चुना। इसके पीछे भी एक बड़ा राज है, लालू कि अनुपस्थिति में पार्टी में बिखराव कि सम्भावना बन सकती थी और अगर तेजस्वी को कमान दी जाती तो कुछ नाराजगी सामने आ सकती थी. लालू ने जो जमीन फिर से तैयार कि थी पार्टी उसका उपयोग करना चाहती थी और लालू नहीं तो राबड़ी को सामने लाकर पार्टी ने अपनी रणनीति जाहिर कर दी. राजद के सामने सबसे बड़ी चुनौती है फिर से सत्ता में वापस आना. जदयू और बीजेपी के गठबंधन के समय राजद कि सम्भावना अच्छी बनती दिख रही थी. कुछ ने कुछ मुद्दे पर जनता सरकार से नाराज थी. सबसे ज्यादा नाराजगी शराब कारोबार नीति और शिक्षक बहाली को लेकर थी. शिक्षकों कि नाराजगी भी नीतीश को झेलनी पड़ी थी और राजद इसका पूरा फायदा उठा रहा था. लेकिन बीजेपी और जदयू के अलगाव ने माहौल बदल दिया लड़ाई अब त्रिकोणीय हो गयी. जदयू नीतीश के भरोसे है तो बीजेपी नमो मंत्र जप रही है तो राजद भावनात्मक माहौल बनाने में लगा है. परिवार को मैदान में उतारकर राजद ने इसका परिचय दे दिया है, साथ ही साथ लालू के जेल जाने को एक षड्यंत्र बताकर भी राजद बाजी अपने पक्ष में करने कि कोशिश में है. पार्टी नेताओं के बीच बिखराव को जिस तरह राजद ने काबू किया है वह आने वाले चुनाव में राजद कि रणनीति को जाहिर करता है. एक नेता और एक वोट के जिस सिद्धांत पर राजद चल रहा है वह आने वाले चुनाव और आगे कि पूरी राजनीति कि तस्वीर दिखाता है. आज लालू भले जेल में हैं लेकिन जनता के बीच आज भी वही हैं. यक़ीनन समय के साथ राजद बदल रहा है. कभी बुरे कारणों से चर्चा में रहने वाले नेता अब आम जन के  हितैषी बनकर रहना पसंद कर रहे हैं. जमीनी स्तर पर जिस तरह नेता मेहनत कर रहे हैं वह राजद के बदले स्वरुप को बयां करता है. कभी तकनीक का मजाक उड़ाने वाले राजद के नेतागण आजकल तकनीक से भी जुड़ रहे हैं, साथ ही साथ राजद अब माय(मुस्लिम+यादव ) समीकरण के अलावे और भी समीकरणों पर ध्यान दे रहा है. इसके पीछे ठाकुर नेताओं का राजद में बढ़ता प्रभुत्व भी एक कारण हो सकता है. राजद कि यह बदली रणनीति आने वाले समय में कितनी कारगर होगी यह तो समय बतायेगा लेकिन इतना तो तय है कि आने वाले समय में राजद पूरी तो नहीं लेकिन थोड़ा बहुत बदला नजर आएगा। आने वाले समय में जनता राजद को राबड़ी या तेजस्वी के रूप में कितना स्वीकार करती है इसका तस्दीक भी हो जायेगा। 

Nov 7, 2013

मोदी बिहार में हैं मुद्दा?

 राजनीतिक रूप से बिहार फिलहाल काफी अलग दिख रहा है. पहले तो नीतीश और बीजेपी का सम्बन्ध विच्छेद उसके बाद लालू का जेल जाना और फिर नरेंद्र मोदी का बिहार आना और उनके पहले ही रैली में बम विस्फोट हो जाना. कभी लालू को सत्ता से बेदखल करने को जदयू और भाजपा ने हाथ मिलाया था और जनता ने भी मौका दिया इस दोस्ती को. दो बार सत्ता में आना कोई हंसी का खेल नहीं है. लेकिन कहते हैं न ऱाजनीति सम्भावनाओं पर चलती है. यहाँ कौन कब दोस्त बन जाये और कौन आँखें तरेर ले कोई नहीं कह सकता. और यह तो सर्वविदित है कि सब दिन एक जैसा नहीं होता. खैर जो भी हो लेकिन बिहार कि राजनीति अचानक इस तरह करवट लेगी किसी को अंदेशा नहीं था. कहते हैं न एक तूफान पूरा परिदृश्य बदल देता है. ऐसा ही कुछ बिहार में भी हुआ. मोदी के नाम पर ऐसी तनातनी हुई कि पूरा खेल ही बदल गया. लालू जो कभी खेल से बाहर थे अचानक जीतने का फार्मूला बनाने लगे. लेकिन तभी एक तूफान और आया और नीतीश और भाजपा अलग हो गए. और फिर शुरू हुआ असली खेल. नीतीश अपना वोट बैंक साधने में लगे थे तो भाजपा अपनी और इनके बीच लालू भी ख़म ठोककर खड़े होने लगे थे. एक तरफ भाजपा नीतीश को औकात दिखाने कि बात करने लगी तो दूसरी ओर नीतीश को कॉंग्रेस का एजेंट बताने में भी भाजपा को मजा आने लगा. वहीं लालू अपनी गोटी फिट करने में लग गए. लालू को जनता का अच्छा सहयोग भी मिलने लगा लेकिन चारा के खेल ने सारा मामला बिगाड़ दिया. लालू जेल चले गए और पूरा मामला एक बार फिर बदल गया. सत्ता के समय जो भाजपा मोदी को बिहार बुलाने में परहेज़ करती थी मोदी अब उसके तारणहार बन चुके थे. मोदी पहले भी मुद्दा थे और फिर मुद्दा बन गए. आखिर वोट बैंक कि राजनीति ही कुछ ऐसी है. हुंकार भरने मोदी पटना आते इससे पहले बम पटना को दहलाने को तैयार था. लेकिन फिर भी मोदी आये और जनता को साधने का हर प्रयास किया. यकीनन गांधी मैदान कि भीड़ ने मोदी और भगवा खेमे को गदगद कर दिया लेकिन भीड़ और वोट में काफी अंतर होता है. नीतीश जहाँ अपने वोट बैंक को लेकर बेफिक्र हैं तो आरजेडी भी वापसी को लेकर काफी उत्साहित है. कांग्रेस फिलहाल अपने को तलाशती दिख रही है. जहाँ राहुल अकेले दम पर चुनाव में जाने कि बात कर रहे हैं वहीं कुछ कांग्रेसी गठबंधन पर भी ध्यान रख रहे हैं. पासवान एक सेतु के रूप में काम करते नजर आ रहे हैं. खैर जो भी हो मुद्दा फिर मोदी ही हैं. वोट बैंक कि राजनीति का मर्म ही कुछ ऐसा है कि जो वोट दिलावे उसी को टारगेट में रख कर चलना चाहिए. पहले भी मोदी के नाम पर वोट मिलते रहे हैं और हो न हो आने वाले समय में भी मिलने लगे तो कोई ताज्जुब नहीं होगा. खैर जो भी हो अब समय का इन्तजार ही सबसे अच्छा विकल्प नजर आ रहा है?