Dec 15, 2012

आशीष की मौत का जिम्मेदार कौन ?

वैसे तो मेरा कस्बाई शहर बांका शांत ही रहता है। यहाँ के लोगों को शांति अत्यंत प्रिय है। लेकिन कभी -कभी नदी भी उफ़नाती है तो आसपास का इलाका डूब जाता है। मेरे शहर में मौसम तो करवट ले ही चुका है। वातावरण में नमी का प्रवेश हो चुका है, लेकिन इस शहर पर इसका असर नहीं है। इस मौसम में शहर का तापमान अचानक गर्म हो गया है। वैसे तो यह शांतप्रिय बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का ठिकाना है लेकिन कभी -कभी इनकी बेवजह की उग्रता भी देखने को मिलती है। कहते हैं न अपनों के बिछड़ने का दर्द अपनों को ही होता है। हमारे यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। बीते 16 दिनों में शहर ने कई लोगों की असलियत को जाना, पहचाना, कितने तरह के दावों को सुना-देखा, महसूस किया लेकिन अंत में निराशा से ही सामना हुआ। जी हाँ, बीते 29 नवंबर को शहर के जगतपुर मोहल्ले के स्कूली छात्र आशीष का अपहरण हो गया था। पुलिस 14 दिसंबर तक उसे खोज लेने की हवाई फायरिंग करती रही और अचानक 15 दिसंबर को बंदूक से छूटे गोली के खाली खोखे की तरह उस मासूम के निर्जीव शरीर को लेकर सामने आई। माता-पिता तो आस लगाये बैठे थे की सुशासन में सब कुछ अच्छा ही होगा, अंत में एक अच्छी खबर मिलेगी, वो अपने लाल को फिर से गले लगा सकेंगे, बहन को उम्मीद थी की भाई को फिर से राखी बांधेंगे, दोस्तों को यकीन था की उनका अपना आशीष फिर से उनके साथ मटरगस्ती करेगा। काश! ऐसा हो पाता, सब की मुरादें पूरी होती, सब के चेहरे पर मुस्कान होती, सब की आस यकीन में बदलती लेकिन हुआ तो जो मंजूरे खुदा था।  इस मायावी दुनिया से हटाकर उसे  दूर भेज दिया हैवानों ने। क्या कसूर था उसका यह की उसके पिता के पास अपहरणकर्ताओं को देने के लिए 50 लाख रूपये नहीं थे। या फिर वो अपने घर का इकलौता चिराग था? प्रश्न गंभीर है उत्तर इतनी आसानी से नहीं मिलने वाली है। अब एक मूल मुद्दे पर आते हैं की आखिर पुलिस क्या सिर्फ दावे करने के लिए होती है। घटना घटने के बाद ही उसकी नींद क्यूँ टूटती है? विस्मयकारी प्रश्न है, जवाब क्या है पुलिस के  पास। क्या आप सिर्फ नाम के रखवाले हैं या कुछ काम के भी है। अरे कब जगियेगा आप ,जागिये आपकी जरुरत है देश के लोगों को। आखिर क्यूँ अपराधियों को आपका डर नहीं है। बांका की पुलिस क्या आप किसी कार्य को करने में सक्षम नहीं हैं या बात कुछ और है? आपके शहर में लगातार घटना हो रही है और आप उत्सव मना रहे हैं। प्रशासन एक तरफ युवा महोत्सव मनाती है और उसके ही शहर में युवा सुरक्षित नहीं है? अरे ये नाटक बंद कीजिये। कुम्भकर्णी नींद से जागिये और अपने काम को सही ढंग से कीजिये। आखिर क्या गुंडे-बदमाश इस काबिल हो गए की वो आपको ही आँख दिखाने लगे और आप इतने मजबूर। अरे जिम्मेदारी लीजिये सिर्फ अख़बारों और विज्ञापनों के माध्यम से अपनी तारीफ मत कीजिये। आपका काम दूसरा है आम लोगों की हिफाजत उसको अच्छे से पूरा करिए। आपको क्या याद दिलाना होगा की आपका क्या काम है। आप व्यापारियों और रसूखदारों के साथ कम समय दीजिये, आम अवाम की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दीजिये। अरे माना की इससे आपके घर की अलीशानता प्रभावित होगी लेकिन आपका काम तो यही है। दूसरी ओर मैं यहाँ के प्रेस से भी एक प्रश्न करना चहुँगा की क्या खबर किसी के जान से भी ज्यादा प्यारी है। मुंबई हमलों के बाद जो इस जमात की थू -थू  हुई थी उससे भी कुछ सबक लीजिये। हर चीज़ को खबर की भांति मत देखिये मानवता का भी ख्याल कीजिये। माना की प्रतिस्पर्धा ज्यादा है लेकिन क्या अगर आशीष के बदले आपके घर का चिराग होता तो भी आप ऐसे ही ट्रीट करते। चूँकि मैं भी पत्रकारिता से सम्बन्ध रखता हूँ इस नाते कुछ चीजों को अच्छी तरह जानता हूँ। आपका पत्रकारिता धर्म आपको आम आदमी के हित में बात करने की हिदायत देता है यह शायद आप अच्छी तरह जानते समझते हैं। आप किसी को कुछ दिलाने की लड़ाई उसके हित को देख कर लड़ने की बात कहते हैं लेकिन जब बारी करने की आती है तो आपको सिर्फ अपना और अपने संस्थान का हित याद आता है। मुझे याद है जब मैंने अपने एक स्थानीय दोस्त को कहा था की मैं पत्रकारिता का छात्र हूँ तो वो बड़ा ही विस्मयकारी निगाहों से मुझे घूरने लगा था। आज मुझे लगता है की वो एक हद तक सही था। मैं बहुत दिनों से बांका में हूँ और देखता हूँ की किस तरह अख़बार कुछ खास लोगों की तारीफों के पुल बांधते अघा नहीं रहे हैं। आशीष प्रकरण में निःसंदेह आपने एक अच्छी आवाज़ उठाई लेकिन कहीं न कहीं खबरों की तलाश में आपने पत्रकारिता के लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया। ज्यादा उतावलापन कभी-कभी गलत परिणाम देती है यह आपने आरुषि-हेमराज हत्याकांड के बाद भी नहीं समझी। हो सकता है आपको लगेगा की मैं पगला गया हूँ जो ऐसी बात कह रहा हूँ लेकिन मुझे लगता है अगर आप इस मामले में कुछ बातों को लेकर सब्र कर लेते तो अच्छा रहता । हमारे प्रिय पत्रकारबंधु नैतिकता को किराये पर न रखते हुए काम करें तो राज-समाज के लिए सही  रहेगा। देश के चौथे स्तम्भ की गरिमा का थोड़ा बहुत ख्याल करते चलें तो बेहतर होगा।  ज्यादा क्या कहूँ न ही पुलिस का कुछ होगा, न ही प्रशासन को कुछ चेतना आएगी और न ही मीडिया कुछ सोचेगा पर जिसका अपना चला गया उसका दुःख कौन बांटेगा इसपर सोचने की जरुरत सभी को है ताकि आगे से और आशीष को जान न गंवानी पड़े। 

Dec 1, 2012

क्या न्याय मिलेगा बीबी शहजादी को?

कहते हैं मानव जीवन के भलाई के लिए समाज का होना परम आवश्यक है। परिवार के बाद समाज ही एक ऐसी संस्था है जहाँ मनुष्य का नैतिक और सांस्कृतिक विकास होता है। कहें तो जीवन रूपी इस नैय्या को भवसागर के पार लगाने में समाज की बहुत ही महती भूमिका होती है। पंच परमेश्वर को पढने के बाद तो लगता है इस न्याय रूपी मंदिर में सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होता है। लेकिन अब दौर जुम्मन शेख और अलगू चौधरी वाला नहीं रहा, अब नियत के मामले में लोग बदल चुके हैं। एक बहुत ही हृदयविदारक घटना ने मुझे अन्दर से समाज और राजनीति को लेकर सोचने को विवश कर दिया है। कभी एक जमाना था जब राजनीती देश को जोड़ने का काम करती थी। समाज के उत्थान के लिए राजनीतिज्ञ आगे रहते थे लेकिन समय बदला, लोगों की जरूरतें बदली और बदल गया सामाजिक ताना-बाना।  मैं आजकल बिहार में रह रहा हूँ तो जरुर है  की यहाँ की घटनाओं को बारीक़ नजरों से देखूं .कल यानि की शनिवार को एक ऐसी ही खबर जो अख़बारों में प्रमुखता से आई थी, जहाँ तक मैंने पढ़ा एक अख़बार ने तो शानदार तरीके से छापी थी। किस तरह निर्दयी समाज ने एक  औरत को तडपा-तडपा के मार दिया। एक तरफ राज्य सरकार महिलाओं के हितों के प्रति अपने वादों को प्रचारित करते रहती है वहीँ दूसरी ओर उसके राज्य के जनप्रतिनिधि तुगलकी फरमान सुनाते फिरते हैं। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ बीबी शहजादी की जिसे तडपा-तडपा  के मार दिया गया। पंचायत के प्रमुख की बात न मानने की ऐसी सजा मिली जिसकी कल्पना भी एक सभ्य समाज नहीं कर सकता। एक तरफ हम अपने को न्यायप्रिय देश कहने का दंभ भरते हैं वहीँ दूसरी ओर अपने देश के नागरिकों को ही न्याय नहीं, वाह रे देश और वाह  रे तेरा कानून। जी हाँ वह राज्य जहाँ की सरकार पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत  आरक्षण देती है वहां भरी पंचायत में ऐसे कृत्य को अंजाम दिया जाता है तो कहने की बात ही क्या? बिहार के पूर्णिया जिले के असियानी गांव में बीबी शहजादी को पहले तो बेवजह तंग करने की साजिश रची गयी फिर उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया। समूचे गांव वालों ने भी गजब के धैर्य दिखाया कोई भी उसकी मदद को नहीं आया। और जब उसके रिश्तेदार आये तो समाज के पहरेदारों ने उन्हें  भी धमकी देकर उसे मरने छोड़ देने को कहा । क्या ऐसे ही चलेगी व्यवस्था और ऐसे ही होगा हमारा विकास। किसी के दामन को दागदार कोई कैसे कह सकता है। खैर अगर ऐसा ही होता रहा तो चला अपना देश, क्या लोग ऐसे में बंदूक उठाने को मजबूर नहीं होंगे। और बड़ी बात तो यह की उस मजबूर औरत के नौनिहालों का क्या होगा, कौन लेगा उनकी  जिम्मेदारी? कौन देगा उनको माँ का वात्सल्य? क्या इसका जवाब है किसी के पास। क्या किसी के गर्भ में पल रहे बच्चे के बारे में दूसरा ही कुछ कह सकता है, दूसरा ही कुछ भी आरोप लगा सकता है। क्या अब इसका भी प्रमाण देना होगा की किसी के गर्भ में पल रहा बच्चा उसका है की नहीं? क्या एक औरत हमेशा शक की नजरों से ही देखी जाएगी? आखिर इस दकियानूसी विचार वालों से हमें कब छुटकारा मिलेगा या फिर ऐसे ही चलता रहेगा। क्या बीबी शहजादी को इन्साफ मिलेगा या  उसके मौत को दबा दिया जायेगा। क्या कहीं  इसपर राजनीति तो शुरू नहीं हो जाएगी ये प्रश्न बहुत विचारनीय हैं? क्या जकी अहमद जैसे सरपंच का कुछ होगा या फिर राजनीति की ओट में वह बच निकलेगा। और एक सवाल हमारे समाज से भी की क्या अगर हमारा कोई अपना होता तो हम भी उसे ऐसे ही छोड़ देते। अब जब बीबी शहजादी के बच्चे इन्साफ मांगेंगे तो क्या उनको इन्साफ मिल सकेगा प्रश्न बड़ा है। समय का इंतजार सब सामने आ जायेगा। सड़क पर गाड़ी फिर दौड़ेगी लेकिन क्या पुराने व्यवस्था पर ही या कुछ नया होगा?