Dec 15, 2012

आशीष की मौत का जिम्मेदार कौन ?

वैसे तो मेरा कस्बाई शहर बांका शांत ही रहता है। यहाँ के लोगों को शांति अत्यंत प्रिय है। लेकिन कभी -कभी नदी भी उफ़नाती है तो आसपास का इलाका डूब जाता है। मेरे शहर में मौसम तो करवट ले ही चुका है। वातावरण में नमी का प्रवेश हो चुका है, लेकिन इस शहर पर इसका असर नहीं है। इस मौसम में शहर का तापमान अचानक गर्म हो गया है। वैसे तो यह शांतप्रिय बुद्धिजीवियों और पत्रकारों का ठिकाना है लेकिन कभी -कभी इनकी बेवजह की उग्रता भी देखने को मिलती है। कहते हैं न अपनों के बिछड़ने का दर्द अपनों को ही होता है। हमारे यहाँ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। बीते 16 दिनों में शहर ने कई लोगों की असलियत को जाना, पहचाना, कितने तरह के दावों को सुना-देखा, महसूस किया लेकिन अंत में निराशा से ही सामना हुआ। जी हाँ, बीते 29 नवंबर को शहर के जगतपुर मोहल्ले के स्कूली छात्र आशीष का अपहरण हो गया था। पुलिस 14 दिसंबर तक उसे खोज लेने की हवाई फायरिंग करती रही और अचानक 15 दिसंबर को बंदूक से छूटे गोली के खाली खोखे की तरह उस मासूम के निर्जीव शरीर को लेकर सामने आई। माता-पिता तो आस लगाये बैठे थे की सुशासन में सब कुछ अच्छा ही होगा, अंत में एक अच्छी खबर मिलेगी, वो अपने लाल को फिर से गले लगा सकेंगे, बहन को उम्मीद थी की भाई को फिर से राखी बांधेंगे, दोस्तों को यकीन था की उनका अपना आशीष फिर से उनके साथ मटरगस्ती करेगा। काश! ऐसा हो पाता, सब की मुरादें पूरी होती, सब के चेहरे पर मुस्कान होती, सब की आस यकीन में बदलती लेकिन हुआ तो जो मंजूरे खुदा था।  इस मायावी दुनिया से हटाकर उसे  दूर भेज दिया हैवानों ने। क्या कसूर था उसका यह की उसके पिता के पास अपहरणकर्ताओं को देने के लिए 50 लाख रूपये नहीं थे। या फिर वो अपने घर का इकलौता चिराग था? प्रश्न गंभीर है उत्तर इतनी आसानी से नहीं मिलने वाली है। अब एक मूल मुद्दे पर आते हैं की आखिर पुलिस क्या सिर्फ दावे करने के लिए होती है। घटना घटने के बाद ही उसकी नींद क्यूँ टूटती है? विस्मयकारी प्रश्न है, जवाब क्या है पुलिस के  पास। क्या आप सिर्फ नाम के रखवाले हैं या कुछ काम के भी है। अरे कब जगियेगा आप ,जागिये आपकी जरुरत है देश के लोगों को। आखिर क्यूँ अपराधियों को आपका डर नहीं है। बांका की पुलिस क्या आप किसी कार्य को करने में सक्षम नहीं हैं या बात कुछ और है? आपके शहर में लगातार घटना हो रही है और आप उत्सव मना रहे हैं। प्रशासन एक तरफ युवा महोत्सव मनाती है और उसके ही शहर में युवा सुरक्षित नहीं है? अरे ये नाटक बंद कीजिये। कुम्भकर्णी नींद से जागिये और अपने काम को सही ढंग से कीजिये। आखिर क्या गुंडे-बदमाश इस काबिल हो गए की वो आपको ही आँख दिखाने लगे और आप इतने मजबूर। अरे जिम्मेदारी लीजिये सिर्फ अख़बारों और विज्ञापनों के माध्यम से अपनी तारीफ मत कीजिये। आपका काम दूसरा है आम लोगों की हिफाजत उसको अच्छे से पूरा करिए। आपको क्या याद दिलाना होगा की आपका क्या काम है। आप व्यापारियों और रसूखदारों के साथ कम समय दीजिये, आम अवाम की सुरक्षा पर ज्यादा ध्यान दीजिये। अरे माना की इससे आपके घर की अलीशानता प्रभावित होगी लेकिन आपका काम तो यही है। दूसरी ओर मैं यहाँ के प्रेस से भी एक प्रश्न करना चहुँगा की क्या खबर किसी के जान से भी ज्यादा प्यारी है। मुंबई हमलों के बाद जो इस जमात की थू -थू  हुई थी उससे भी कुछ सबक लीजिये। हर चीज़ को खबर की भांति मत देखिये मानवता का भी ख्याल कीजिये। माना की प्रतिस्पर्धा ज्यादा है लेकिन क्या अगर आशीष के बदले आपके घर का चिराग होता तो भी आप ऐसे ही ट्रीट करते। चूँकि मैं भी पत्रकारिता से सम्बन्ध रखता हूँ इस नाते कुछ चीजों को अच्छी तरह जानता हूँ। आपका पत्रकारिता धर्म आपको आम आदमी के हित में बात करने की हिदायत देता है यह शायद आप अच्छी तरह जानते समझते हैं। आप किसी को कुछ दिलाने की लड़ाई उसके हित को देख कर लड़ने की बात कहते हैं लेकिन जब बारी करने की आती है तो आपको सिर्फ अपना और अपने संस्थान का हित याद आता है। मुझे याद है जब मैंने अपने एक स्थानीय दोस्त को कहा था की मैं पत्रकारिता का छात्र हूँ तो वो बड़ा ही विस्मयकारी निगाहों से मुझे घूरने लगा था। आज मुझे लगता है की वो एक हद तक सही था। मैं बहुत दिनों से बांका में हूँ और देखता हूँ की किस तरह अख़बार कुछ खास लोगों की तारीफों के पुल बांधते अघा नहीं रहे हैं। आशीष प्रकरण में निःसंदेह आपने एक अच्छी आवाज़ उठाई लेकिन कहीं न कहीं खबरों की तलाश में आपने पत्रकारिता के लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया। ज्यादा उतावलापन कभी-कभी गलत परिणाम देती है यह आपने आरुषि-हेमराज हत्याकांड के बाद भी नहीं समझी। हो सकता है आपको लगेगा की मैं पगला गया हूँ जो ऐसी बात कह रहा हूँ लेकिन मुझे लगता है अगर आप इस मामले में कुछ बातों को लेकर सब्र कर लेते तो अच्छा रहता । हमारे प्रिय पत्रकारबंधु नैतिकता को किराये पर न रखते हुए काम करें तो राज-समाज के लिए सही  रहेगा। देश के चौथे स्तम्भ की गरिमा का थोड़ा बहुत ख्याल करते चलें तो बेहतर होगा।  ज्यादा क्या कहूँ न ही पुलिस का कुछ होगा, न ही प्रशासन को कुछ चेतना आएगी और न ही मीडिया कुछ सोचेगा पर जिसका अपना चला गया उसका दुःख कौन बांटेगा इसपर सोचने की जरुरत सभी को है ताकि आगे से और आशीष को जान न गंवानी पड़े। 

Dec 1, 2012

क्या न्याय मिलेगा बीबी शहजादी को?

कहते हैं मानव जीवन के भलाई के लिए समाज का होना परम आवश्यक है। परिवार के बाद समाज ही एक ऐसी संस्था है जहाँ मनुष्य का नैतिक और सांस्कृतिक विकास होता है। कहें तो जीवन रूपी इस नैय्या को भवसागर के पार लगाने में समाज की बहुत ही महती भूमिका होती है। पंच परमेश्वर को पढने के बाद तो लगता है इस न्याय रूपी मंदिर में सभी के साथ एक जैसा व्यवहार होता है। लेकिन अब दौर जुम्मन शेख और अलगू चौधरी वाला नहीं रहा, अब नियत के मामले में लोग बदल चुके हैं। एक बहुत ही हृदयविदारक घटना ने मुझे अन्दर से समाज और राजनीति को लेकर सोचने को विवश कर दिया है। कभी एक जमाना था जब राजनीती देश को जोड़ने का काम करती थी। समाज के उत्थान के लिए राजनीतिज्ञ आगे रहते थे लेकिन समय बदला, लोगों की जरूरतें बदली और बदल गया सामाजिक ताना-बाना।  मैं आजकल बिहार में रह रहा हूँ तो जरुर है  की यहाँ की घटनाओं को बारीक़ नजरों से देखूं .कल यानि की शनिवार को एक ऐसी ही खबर जो अख़बारों में प्रमुखता से आई थी, जहाँ तक मैंने पढ़ा एक अख़बार ने तो शानदार तरीके से छापी थी। किस तरह निर्दयी समाज ने एक  औरत को तडपा-तडपा के मार दिया। एक तरफ राज्य सरकार महिलाओं के हितों के प्रति अपने वादों को प्रचारित करते रहती है वहीँ दूसरी ओर उसके राज्य के जनप्रतिनिधि तुगलकी फरमान सुनाते फिरते हैं। जी हाँ मैं बात कर रहा हूँ बीबी शहजादी की जिसे तडपा-तडपा  के मार दिया गया। पंचायत के प्रमुख की बात न मानने की ऐसी सजा मिली जिसकी कल्पना भी एक सभ्य समाज नहीं कर सकता। एक तरफ हम अपने को न्यायप्रिय देश कहने का दंभ भरते हैं वहीँ दूसरी ओर अपने देश के नागरिकों को ही न्याय नहीं, वाह रे देश और वाह  रे तेरा कानून। जी हाँ वह राज्य जहाँ की सरकार पंचायतों में महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत  आरक्षण देती है वहां भरी पंचायत में ऐसे कृत्य को अंजाम दिया जाता है तो कहने की बात ही क्या? बिहार के पूर्णिया जिले के असियानी गांव में बीबी शहजादी को पहले तो बेवजह तंग करने की साजिश रची गयी फिर उसे मरने के लिए छोड़ दिया गया। समूचे गांव वालों ने भी गजब के धैर्य दिखाया कोई भी उसकी मदद को नहीं आया। और जब उसके रिश्तेदार आये तो समाज के पहरेदारों ने उन्हें  भी धमकी देकर उसे मरने छोड़ देने को कहा । क्या ऐसे ही चलेगी व्यवस्था और ऐसे ही होगा हमारा विकास। किसी के दामन को दागदार कोई कैसे कह सकता है। खैर अगर ऐसा ही होता रहा तो चला अपना देश, क्या लोग ऐसे में बंदूक उठाने को मजबूर नहीं होंगे। और बड़ी बात तो यह की उस मजबूर औरत के नौनिहालों का क्या होगा, कौन लेगा उनकी  जिम्मेदारी? कौन देगा उनको माँ का वात्सल्य? क्या इसका जवाब है किसी के पास। क्या किसी के गर्भ में पल रहे बच्चे के बारे में दूसरा ही कुछ कह सकता है, दूसरा ही कुछ भी आरोप लगा सकता है। क्या अब इसका भी प्रमाण देना होगा की किसी के गर्भ में पल रहा बच्चा उसका है की नहीं? क्या एक औरत हमेशा शक की नजरों से ही देखी जाएगी? आखिर इस दकियानूसी विचार वालों से हमें कब छुटकारा मिलेगा या फिर ऐसे ही चलता रहेगा। क्या बीबी शहजादी को इन्साफ मिलेगा या  उसके मौत को दबा दिया जायेगा। क्या कहीं  इसपर राजनीति तो शुरू नहीं हो जाएगी ये प्रश्न बहुत विचारनीय हैं? क्या जकी अहमद जैसे सरपंच का कुछ होगा या फिर राजनीति की ओट में वह बच निकलेगा। और एक सवाल हमारे समाज से भी की क्या अगर हमारा कोई अपना होता तो हम भी उसे ऐसे ही छोड़ देते। अब जब बीबी शहजादी के बच्चे इन्साफ मांगेंगे तो क्या उनको इन्साफ मिल सकेगा प्रश्न बड़ा है। समय का इंतजार सब सामने आ जायेगा। सड़क पर गाड़ी फिर दौड़ेगी लेकिन क्या पुराने व्यवस्था पर ही या कुछ नया होगा?

May 25, 2012

अब तो समझिए आडवाणी जी

समय बड़ा मूल्यवान होता है. कहते हैं न जो समय को पहचान जाता है वह  जीवन के सफ़र में निर्बाध रूप से  आगे जाता है. और अगर राजनीति में समय के बारे में जानना है तो आडवाणी जी से अच्छी व्याख्या और  कोई   नहीं कर सकता. मुंबई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद इसकी पुष्टि और मजबूत  हुई है. मन में प्रधानमंत्री पद का सपना संजोये आडवाणी जी कब से बैठे हैं लेकिन मौका नहीं मिला. बहुत बार मौका मिला भी तो शायद भाग्य ने ही साथ नहीं दिया. पार्टी ने 2009 का लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा लेकिन पार्टी सत्ता में नहीं आ सकी . एक बार आस जगी लेकिन अंतत उन्हें निराश ही होना पड़ा. देश के मतदाताओं को शायद वो भरोसा नहीं जगा पाए . 2005 के जिन्ना प्रकरण के  बाद ही  आडवाणी जी की स्थिति ख़राब होनी शुरू  हो चुकी थी लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव और  गडकरी  की बीजेपी प्रमुख के रूप में ताजपोशी ने उनकी स्थिति स्पष्ट कर दी. आडवाणी  जैसे राजनीति के धुरंधरों  के बारे में कोई कहे की उन्हें इसका आभास नहीं था तो वो गलत कहता है. लेकिन पद और सत्ता चीज़ ही  ऐसी है की  किसी को भी अंधी कर देती है. प्रतिष्ठा वश आडवाणी जी को   विपक्ष के  नेता का पद भी किसी  और को  देना  पड़ा.  आडवाणी  जैसे चतुर सुजान के लिए यह एक तरह से झटका ही था . जो कभी उनकी बात से बाहर नहीं जाते वो भी धीरे-धीरे आँख दिखाने लगे. गुटबाजी  आडवाणी को बहुत महंगी पड़ने लगी. जनाधार का न होना उनके गुट के लिए गले का फांस बन गया. राज्यों के वे नेता भी उनको आँख दिखाने  लगे जिनने उनसे ही राजनीति का ककहरा सीखा. मतदाताओं का  उनके प्रति बेरुखा व्यवहार भी उनके लिए  गलत संदेश लेकर आया . आरएसएस भी उनको नापसंद करने लगा . जिस बीजेपी को उनने मेहनत से सींचा  वही उनको जाने की सलाह दे रहा है. इतना कुछ होने के बाद भी आडवाणी  जी हर बार एक ही बात कहते  और सोचते हैं किसी तरह एक बार देश चलने का मौका मिल जाये. जनता के साथ पार्टी भी किसी नये नेता को चाहती है लेकिन आडवाणी जी जाने को तैयार ही नहीं हैं. ज्यादा तो नहीं लिखना चाहूँगा  लेकिन अंत में एक एक बात  कहूँगा आडवाणी जी अब तो बालहट छोड़िये और एक  सम्मानपूर्वक  विदाई ले लीजिए. सभी को लग रहा है की आपके तरकश में कोई तीर नहीं बचा है. और अगर आपको  लगता है की आप पद और सत्ता हासिल कर लेंगे तो फिर देखिए. लेकिन हर रोज नया सवेरा होता है और  सभी लोग नए तरह का सूरज देखना पसंद करते हैं.

धन के आगे बेबस राजनीति

झारखण्ड की राजनीति  को लेकर बहुत दिनों से कुछ लिखने का मन हो रहा था. काफी विचार करता की आज कुछ लिख ही डालूँगा लेकिन विचार सही आकार ले नहीं पा रहे थे . लेकिन आज का मुहूर्त शायद बड़ा अच्छा है की आज मैं इस विषय पर कुछ लिखने जा रहा हूँ . अपने नाम के अनुरूप ही इस राज्य की  राजनीति भी उलझी  हुई है. सरकार बनती भी बड़ी मुश्किल से है और चलती भी बड़ी मुश्किल से है.  पहले तो  अपने दम पर सरकार  बनाने  की सोचता ही कोई नहीं है और अगर सोचता भी है तो उसका सपना-सपना  ही रह जाता  है. तो जनाब मैं बता दूँ की इसकी कारण से तो राजनीति के मामले में यह राज्य खास है. शायद ही कोई मुख्यमंत्री  रहा हो जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया हो. और तो  और जिसने जितना भी समय सीएम आवास  में काटा  वह शायद ही कभी चैन की साँस ले पाया. हैं न यहाँ की राजनीति दिलचस्प. राज्य अपने को हमेशा कोसते रहता है की कोई आये और उसका उद्धार करे. लेकिन रामायण के सबरी की  तरह  यहाँ राम का अवतार  हुआ ही कहाँ है. लूट, खसोट मची पड़ी है. हर किसी को कुबेर का खजाना हाथ लगा है, सब की  निगाह उसे खाली  करने पर लगी है . किस्मत का खेल यहाँ खूब हुआ है. कई खाकपति को अरबपति बनते देखा है इस राज्य ने. नरसिम्हा राव की सरकार बचाने को शिबू सोरेन ने पैसे लिए थे तो खूब हल्ला हंगामा मचा था देश में. लेकिन यहाँ तो बिना पैसे खर्च किए सरकार  बनती ही  नहीं है. दोष किसी एक पार्टी या लोगों का नहीं है दोषी तो यहाँ भरे पड़े हैं. हर कोई मलाई को बड़े ही टकटकी भरे निगाहों से देखता है और मौका मिलते ही हाथ साफ़ कर देता है . कहने को बीजेपी अपने को पाक साफ़ कहती है लेकिन इसका असली चरित्र यहाँ देखने को मिलता है. सरकार और सत्ता की  इसकी भूख क्या है वह यहाँ स्पष्ट नजर आ जाता है. कांग्रेस का अवतार भी यहाँ बुरी आत्मा के रूप में ही हुआ  है. किसी तरह सेज सजा  मिल जाये यही उसकी कामना रहती है . अब जब दो बड़ी पार्टियाँ ही लाभ के लालच में हर घडी घुमती  रहती है तो छोटी पार्टियाँ क्यूँ पीछे रहे. घर का बड़ा ही जब बिगड़ा है तो छोटा भी बिगड़ जाये  तो कोई ताज्जुब  नहीं होना चाहिए. जेएमम  और अन्य पार्टियाँ तो इस फेर में ही रहती से है की कैसे कोई  महाजन कहीं से आये और हमें कुछ मिल जाये. ईमान तो कब का बिक चुका है अब खुद को भी बेचने में परहेज़ नहीं रह गया है राजनेताओं को . कहिये कैसी है राजनीति इस प्रदेश की . जहाँ सत्ता के पहरेदार ही बिकने को हर हमेशा  तैयार रहते हैं वहां की क्या स्थिति हो सकती है इसका  अंदाजा हर किसी को हो हो चुका है. ट्रेड शब्द यहाँ हमेशा ऊफान पर रहता है .आखिर जब बाजार ही बिकने को तैयार बैठा है तो कोई व्यापारी क्यूँ परहेज़ करे. हर दल की जहाँ यही कोशिश रहती है की सत्ता में आओ और रेवड़ी का लुत्फ़ उठाओ. मैं तो अब इतना ही  कहना चाहता हूँ की अगर दुसरे देशों के लोगों को भी यहाँ से चुनाव लड़ने की इजाजत दे दी जाये तो धनबल  के कारन वह भी चुनाव जीत जाएँ. न भी जीतें तो भी एक बार किस्मत आजमाने इस कसीनो में जरुर आयेंगे. राजनीति को शर्मसार करने के लिए इतना ही काफी नहीं है. अगर नहीं है तो बता दीजिये और भी बहुत कुछ कर सकते हैं यहाँ के नेतागण. ज्यादा फिर किसी दिन आज तक के लिए इतना ही. एक बार सोचिएगा  जरुर इस विषय  पर वह भी गंभीर रूप से .

May 24, 2012

राजनीति का धनखंड: झारखण्ड

आजकल धन के बारे  में देश में और देश के बाहर कुछ ज्यादा ही चर्चा हो रही है . हर तरफ धन की ही बात हो यह एक अजीब तरीके का अहसास दिलाता है . हम जैसे लोगों के लिए तो ऐसे जगह पर बहुत कम स्पेस बचता है. आखिर धन भी तो इस मायावी दुनिया का एक मजबूत स्तम्भ है . इसके बिना शायद  ही किसी का काम चले. और अगर बात राजनीति की आती हो और चर्चा धन की ना हो यह तो हो ही  नहीं सकता है. धन या अर्थ की राजनीति आज अहम स्थान लेती जा रही है. राजनीत के इस कड़ी में आज मैं  झारखण्ड की राजनीति को लेकर चर्चा करूँगा. इस राज्य की स्थापना 2000 से ही यह अमिर राज्य का तमगा हासिल करने की सोचता था, लेकिन कहते हैं न की जिस जगह के राजनेताओं में लक्ष्य का  अभाव हो उस  जगह का  विकास शायद ही कभी हो पाता है . धन की ऐसी माया पड़ी इस राज्य के नेताओं पर की कल तक जो खाने को तरसता था वह स्विस बैंक में खाताधारी हो गया. हैं न एक अजीब सी बिडम्बना, लेकिन यह सत्य है और इससे नाता नहीं तोडा जा सकता है. राज्य चाहे किसी मामले में आगे रहे न रहे  लेकिन यहाँ के नेताओं और अधिकारियों के धन की तुलना में बहुत उद्योगपति भी पीछे छुट जाएँ तो ताज्जुब होने वाली कोई बात नहीं है. कोयले  की लूट  से तो सभी वाकिफ हैं लेकिन यहाँ जनता के निवाले को  भी लूटा  जा रहा है. देश का कोई भी पैसवाला इन्सान यहाँ से चुनाव जीतने का दावा कर सकता है. इसका तो प्रमाण  मिल ही चुका है . पहले केडी सिंह चुनाव  जीत जाते हैं तो कभी धूत और मिश्र जैसे लोग चुनाव जितने की  की सोचते हैं . कभी प्रदेश के विधायक बिकने को आतुर रहते हैं तो कभी मंत्री. अब आप ही बताईये इस राज्य का क्या हो सकता है. अगर कोई दम लगाकर कहता है ही यहाँ सब बिकाऊ हैं तो क्या  वह गलत कहता है. मुझे तो लगता है की हकीकत में बिकाऊ शब्द की परिभाषा यहाँ चरितार्थ होती है. कहने को तो इस  राज्य को बने  लगभग 12 साल हो चुके हैं और सत्ता और विपक्ष के कई लोगों के दमन में धन लेकर कार्य करने का दाग लग चुका है और यह आज भी जारी है. झारखण्ड को अगर धनखंड कहें तो कोई गलत  बात नहीं होगी. आज  बस इतना ही आगे फिर आऊंगा आपसे मिलने कुछ नई बात के साथ .

May 23, 2012

राजनीत या अर्थनीत ?

आजकल देश में राजनीति को लेकर चर्चा गरम है आप कहेंगे की यह तो सदा से ही रहता  है. लेकिन यहाँ जो बाद बदली है वह यह क्या की आजकल राजनीति पहले जैसी  नहीं रह गयी है. बहुत से लोग इसके पक्ष में तो बहुत  विपक्ष में अपनी दलील देते हैं. एक बात तो बड़ी गौर करने वाली है वह यह की  राजनीति और धन के बीच एक गजब की जुगलबंदी हो चूका है . बहुत से लोग तो कहते हैं की बिना धन के राजनीत चल ही नहीं सकती.  चुनाव के  समय  इसका नजारा बड़ा ही शानदार नजर आता है.  धन का क्या  महत्व है इसका सबसे अच्छा दीदार चुनाव के समय ही दिखता है . बड़े चुनाव ही नहीं छोटे चुनावों में भी  इसका खूब जोर चलता है. अभी बिहार  में नगरपालिका का चुनाव हुआ है. मैं इस चुनाव में कई चीजों का  दर्शक रहा.  इन चुनावों को देखने के बाद मैंने  जाना की चुनाव का मतलब ही है धनबल. इस अर्थ में मैंने एक चीज़ सीखी की अब राजनीति सिर्फ राजनीति ही नहीं रह गई है इसमें बहुत तरह की अनीति का भी समावेश  हो गया है. राजनीति की जगह अर्थनीति ने ले ली है.  बिहार चुनाव में मैंने देखा की एक छोटे से वार्ड के चुनाव में  भी लाखों का खर्चा आने लगा है . मतदाता अब इस मामले में ज्यादा समझदार हो गया है. वह अब हर किसी से पैसा लेने लगा है  . चुनाव में तो उसकी  किस्मत ही खुल जाती है , उसके लिए धन कमाने का यह एक बेहतरीन  होता है जिसे वह जाने देना नहीं चाहता है . अब आप ही कहें, कैसे न कहा जाये इस राजनीत को  अर्थनीत. अब बाहुबल का स्थान धनबल ने ले लिया है . पैसे वाले चुनाव में सफल हो जाएँ को किसी को चौंकना नहीं चाहिए . हर स्तर पर धन का जोर है. इस चुनाव में कई लोगों ने मुझसे कहा दादा पैसा जब मिल रहा है तो हर किसी से क्यूँ ने लिया जाये . मुझे बड़ी ही तकलीफ हुई और  शर्म भी आई की क्या ऐसे ही हमारा देश प्रगति करेगा. कई लोगों को तो मैंने समझाया  और कई को समझाने के प्रयास में हूँ . अब देखता हूँ कितना सफल हो पता हूँ  लेकिन एक बात   जो मेरे जेहन से निकलती नहीं है वह यह की क्या राजनीति ऐसे जगह आ पहुंची है . इस विषय  पर  हम सभी को मिलकर काम  करना चाहिए. बस आज इतना ही अगली बार फिर किसी मुद्दे को लेकर हाजिर होऊंगा.

May 22, 2012

जेपी, जॉर्ज, नीतीश.....?

आज बहुत दिनों के बाद कुछ लिखने बैठा हूँ . काफी दिनों से चाहत थी कुछ लिखने की लेकिन किसी   कारणवश लिख नहीं पा रहा था. लेकिन आज कुछ लिख कर ही दम लूँगा. मन में तरह-तरह के सवाल हैं , विषय भी काफी हैं लेकिन मैं  आज बिहार को लेकर कुछ लिखने जा रहा हूँ. आज मैं बिहार में राजनीति की  धुरी  बन चुकी पार्टी जनता दल  यू  के बारे में लिखने की कोशिश करता हूँ . जेपी, जॉर्ज  और फिर नीतीश. पार्टी की राजनीत इन्हीं लोगों के आसपास घूमती रही है और फिलवक्त घूम रही है . लेकिन मुझे लगता है आने वाले समय में संक्रमण आने वाला है. जेपी के पाठशाला और जॉर्ज के मार्गदर्शन में पार्टी में एक पीढ़ी विकसित हुई जो अभी अपने उफान पर है. लेकिन एक कहावत है की जिस नदी में तूफान आता है पानी भी उसी का सूखता है . काफी संघर्ष के बाद जब सत्ता का सुख मिलता है तो लोग यह भूलने लगते हैं आगे भी नई पौध लगानी है. अगर हकीकत को देखें तो पार्टी के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है. कैडर   तो पार्टी के पास है नहीं और दुसरे दल के नेता भी काफी संख्या में शरण लिए हुए  हैं . तो ऐसे में बात उठनी लाज़मी है की पार्टी में आखिर ऐसा हो क्यूँ रहा है . इसका एक ही जवाब है सता. जेपी के पाठशाला से निकले छात्र आज राजनीत के मुकाम पर हैं . लेकिन आज शायद  ही आपको कोई मिले जो उस राह पर जाता दिखाई दे . आखिर ऐसा क्यूँ ? यह एक यक्ष प्रश्न है? नीतीश के बाद पार्टी का क्या होगा यह तो आने वाले दिनों में साफ़ हो ही जायेगा लेकिन एक बात जो साफ़ है वह यह की  पार्टी की स्थिति इस मामले में कमजोर है. जो जॉर्ज अपने जवानी के दिनों में सिंह की तरह दहाड़ मारते थे आज क्या पार्टी के पास है कोई ऐसा ? इसका  उत्तर भी नकारात्मक ही आएगा. क्या नीतीश के  तरह कोई है जो देश की राजनीत को प्रभावित कर सके , इसका उत्तर भी नकारात्मक ही आएगा. आखिर पार्टी की स्थिति ऐसी कैसे हो रही है आर इस ओर किसी का  क्यूँ नहीं जा रहा है . एक विचार करने वाली बात है .अगर ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब पार्टी एक नाम भर की पार्टी रह जाए. पार्टी के कर्ता-धर्ता आर विधाता को इस ओर  ध्यान देना चाहिये. जेपी, जॉर्ज, नीतीश.....?

Feb 4, 2012

क्या आम युवाओं का कोई मोल नहीं?

मनमोहन जी ने बहुत दिनों के बाद देश के युवाओं से कुछ अपील की है. उन्होंने युवाओं को देश की राजनीति से जुड़ने को कहा है. बकौल मनमोहन जी युवा ही राजनीति की दशा और दिशा बदल सकते हैं . सिर्फ मनमोहन जी ही नहीं देश के कई और लोग भी इस तरह की बातें कहते रहे हैं . गौर करने की बात है की उनकी कथनी और करनी में क्या किसी तरह की समानता है या फिर 'हाथी के दांत खाने के कुछ और, और दिखाने के कुछ और' वाली ही बात है. आपको लगता होगा की मैं अपने मुद्दे से भटक रहा हूँ, तो चलिए सीधे अपनी बात ही कहता हूँ. सच कहूँ तो मुझे मनमोहन जी की बात से बहुत निराशा हुई है, अब आप कहेंगे जब उन्होंने इतनी अच्छी बात कही तो फिर निराशा काहे की. निराशा इसलिए होती है की इन बातों को सुनते-सुनते तंग आ गया हूँ. आज यह तो कल कोई और इसी तरह की बात करता है लेकिन युवाओं को राजनीति में सही तरीके से प्रवेश कराने की बात कोई नहीं करता? ऐसे समय में सब के मुंह पर ताला लग जाता है.सिर्फ बात तक ही सीमित रह जाते हैं ये लोग जब बात कुछ करने की आती है तो गिरगिट भी रंग बदलने में इनके सामने शर्मा जाता है. अब आप ही कहिये की इस बात से निराशा नहीं होगी तो क्या होगी? युवाओं के नाम पर देश के कुछ घरानों के लोग ही नजर आते हैं, सिर्फ उनमे ही काबिलियत नजर आती है. आम युवा तो सब कुछ होते हुए भी मेहनत का फल नहीं खा पाता है. आखिर वह राजनीति में आकर करे तो करे क्या? जब मेहनत की बारी आती है तो उनको याद किया जाता है और जब फल खाने की बारी आती है तो युवराजों की राह देखी जाती है. वे आयेंगे और मीठे फल का रसास्वादन करेंगे. मकान बनाने में सारी मेहनत तो आम युवा ही करते हैं लेकिन उसका मालिकाना हक़ उनको नहीं मिलता है . चांदी की चम्मच लेकर पैदा होने वाली बात यहाँ चरितार्थ होने लगती है. मनमोहन जी या कोई और जी एक युवा होने के नाते यह कहना चाहूँगा की पहले सचमुच में कुछ करने की सोचिए तब किसी तरह की अपील किया कीजिए. दुःख होता है जब पता चलता है की फलां ने जी तोड़ मेहनत की लेकिन जब बारी आई तो किसी और का नाम सामने आ गया. ज्यादा लिखना तो नहीं चाहता हूँ सिर्फ एक बात युवाओं से कहना चाहता हूँ की क्या हम आम युवाओं को ऐसे ही उपयोग किया जाता रहेगा. आप अपने विचारों को जरुर बताएं. 

Jan 28, 2012

क्या जरुरी है दारु?

कभी - कभी मैं सोचता हूँ की आखिर हमारा समाज आज किस ओर जा रहा है. आजकल एक चीज़ का समाज के साथ बड़ा घनिष्ट सम्बन्ध हो चुका है और इसकी घनिष्टता बढ़ती ही जा रही है. मैं बात कर रहा हूँ  शराब की जिसे भदेस भाषा में दारु भी कहते हैं. या यूँ कहें की आज समाज और शराब के बीच बहुत ही कमाल का सम्बन्ध विकसित हो चुका है. चुनाव में या किसी खास तरह के उत्सवों के दौरान पीया जाने वाला शराब आजकल हर समय अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहा है.मैं बहुत कुछ तो कहना नहीं चाहूँगा लेकिन एक व्यथा जो मन में बार-बार उभरकर आती है उसका वर्णन जरुर करूँगा. कुछ दिनों से मैं अपने शहर और गांव में होने वाले पर्व-त्योहारों में पूरी तरह से संलग्न रह रहा हूँ, इसे भी मैं अपना किस्मत ही मानता हूँ की इस भागदौड़ वाली जिंदगी में यह मौका मुझे मिल पा रहा है. मैं एक चीज़ जो हर पर्व के दौरान देख रहा हूँ की आजकल बिना दारू के पर्व अधूरा है. और अगर किसी को कहें की कम से कम इस दौरान दारू का सेवन न करें तो फिर आपसे बुरा कोई नहीं. एक प्रश्न जो मुझे बहुत परेशान करता है की आखिर हमारा समाज जा कहाँ रहा है. दारु के लिए लोग कुछ भी करने को तैयार रहते हैं. रोटी और बेटी नहीं वरन दारू सबसे जरुरी हो गयी है. मैं बीते दिनों की एक बात कहना चाहता हूँ. मेरे आसपास समाज में ही कोई समारोह था, सारी तैयारी हो चुकी थी. लोग बाग़ भी आने लगे थे. पर कुछ लड़के जो उस समारोह के मुख्य कार्यकर्त्ता थे पता नहीं अचानक कहाँ गायब हो गए. थोड़ी देर बाद वो आये तो मैंने पूछा की क्या भाई कहाँ चले गए थे उनमे से जो सबसे छोटा था वह कहता है की मूड बनाने गए थे. आप खुद अंदाज लगा सकते हैं की कहाँ जा रहे हैं हम और कहाँ जा रहा है हमारा समाज. नैतिकता की परिभाषा अगर यहाँ पर राखी जाये तो शायद उसे भी शर्म आ जाये. दुर्गापूजा हो या सरस्वती पूजा इस दौरान अगर कुछ जरुरी है तो वह है दारु. पता नहीं लोग क्या सोच रहें हैं या किस तरह की सोच है उनकी लेकिन अगर यह नजारा रहा तो वह दिन दूर नहीं जब फिर से हम गुलाम हो जायेंगे. घर तो बर्बाद हो ही रहा है इससे देश को बर्बाद होने में भी दिन नहीं लगेगा. आखिर में एक ही सवाल है की क्या दारू इतनी जरुरी है जो हम उसका गुलाम बनते जा रहे हैं. सोच को बढ़ाना होगा और एक स्वस्थ समाज और देश का निर्माण करना होगा. विचार का विषय है, गंभीरता से सोचना होगा नहीं तो परिणाम तो हमें पता ही है. 





 

Jan 9, 2012

क्या यह पर्व कुछ राह दिखायेगा ?

भारत में चुनाव से बड़ा पर्व शायद ही कोई हो, और हर आम को इसका इन्तजार रहता है. और अभी तो देश के पांच राज्यों में चुनाव की घंटी बज गयी है तो लाजिमी है की मेले की तैयारी भी हो रही होगी. मेले की  तैयारी तो हो ही रही है और तमाशबीन भी अपने-अपने उपकरणों के साथ मैदान में आ चुके हैं, अब तो पूरे देश को इन्तजार है, इस मेले में आने वालों का. और अगर इसको मीडिया में जगह न मिले तो यह अधूरा सा लगता है.खासकर उत्तरप्रदेश इस बार कुछ खास की उम्मीद है और पूरा मैदान पट गया है. बीजेपी, कांग्रेस, सपा और बसपा तो मैदान में ख़म ठोक ही रही है साथ ही साथ कई छोटे और मझोले दल भी ताल पर ताल दे रहे हैं. सब को सपने में लखनऊ का ताज  नजर आ रहा है और अगर आ रहा है तो वह गद्दी जिसपर वो राज करें और देश दुनिया में अपना रुतबा जाहिर कर सकें. लेकिन इस बार ताज किसके सर लगेगा यह कहना बड़ा कठिन है. लेकिन एक चीज़ जो सबसे ज्यादा दिख रही है वह यह की हर दल जीत के लिए ही प्रयत्नशील हैं राज में नीति गायब सी दिख रही है. बड़ा दुःख होता है रोज चलने वाले बहस में पार्टी के नेता अपने को बेदाग बताते हैं और बहस के बाद दागियों की जमात में भोज खाते नजर आते हैं. टीवी पर जिसे गाली देते नहीं अघाते टीवी के बाद उसके साथ गलबाहियां करते नजर आते हैं, हर पार्टी की चाल तो बदली ही है अब उनका चरित्र भी बदल गया है. ईमानदार तो कोई नजर नहीं आता और अगर आता भी है तो वह मुश्किल से ही नजर आता है. क्या चुनाव में एक दल या एक व्यक्ति ऐसा भी हो जाता है, जो अपने लोगों के साथ-साथ अपने ईमान और धर्म को भी भूल जाएँ. वाह रे लोकतंत्र और इसकी पूजा करने वाले जो किसी की तकदीर क्या बदलेंगे  खुद की नयी तस्वीर ही बनाने में मशगूल हैं. खुद पर दया आती है की क्या हम ऐसे ही जमात को अपना प्रतिनिधि बनाते रहेंगे या फिर कुछ बदलाव भी लेन की सोचेंगे. चुनाव तो हर साल आते हैं लेकिन बदलता कुछ भी नहीं है, पता नहीं यह कब बदलेगा और क्या सच में भी कुछ बदलने वाला है. देखिये और चार मार्च का इन्तजार कीजिये और फिर लोकतंत्र के बारे में भी कुछ ख्याल कीजिये. आज बस इतना ही आप भी जरुर अपनी राय दें और बदलाव की शुरुआत करें.