समय बड़ा मूल्यवान होता है. कहते हैं न जो समय को पहचान जाता है वह जीवन के सफ़र में निर्बाध रूप से आगे जाता है. और अगर राजनीति में समय के बारे में जानना है तो आडवाणी जी से अच्छी व्याख्या और कोई नहीं कर सकता. मुंबई में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद इसकी पुष्टि और मजबूत हुई है. मन में प्रधानमंत्री पद का सपना संजोये आडवाणी जी कब से बैठे हैं लेकिन मौका नहीं मिला. बहुत बार मौका मिला भी तो शायद भाग्य ने ही साथ नहीं दिया. पार्टी ने 2009 का लोकसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा लेकिन पार्टी सत्ता में नहीं आ सकी . एक बार आस जगी लेकिन अंतत उन्हें निराश ही होना पड़ा. देश के मतदाताओं को शायद वो भरोसा नहीं जगा पाए . 2005 के जिन्ना प्रकरण के बाद ही आडवाणी जी की स्थिति ख़राब होनी शुरू हो चुकी थी लेकिन 2009 के लोकसभा चुनाव और गडकरी की बीजेपी प्रमुख के रूप में ताजपोशी ने उनकी स्थिति स्पष्ट कर दी. आडवाणी जैसे राजनीति के धुरंधरों के बारे में कोई कहे की उन्हें इसका आभास नहीं था तो वो गलत कहता है. लेकिन पद और सत्ता चीज़ ही ऐसी है की किसी को भी अंधी कर देती है. प्रतिष्ठा वश आडवाणी जी को विपक्ष के नेता का पद भी किसी और को देना पड़ा. आडवाणी जैसे चतुर सुजान के लिए यह एक तरह से झटका ही था . जो कभी उनकी बात से बाहर नहीं जाते वो भी धीरे-धीरे आँख दिखाने लगे. गुटबाजी आडवाणी को बहुत महंगी पड़ने लगी. जनाधार का न होना उनके गुट के लिए गले का फांस बन गया. राज्यों के वे नेता भी उनको आँख दिखाने लगे जिनने उनसे ही राजनीति का ककहरा सीखा. मतदाताओं का उनके प्रति बेरुखा व्यवहार भी उनके लिए गलत संदेश लेकर आया . आरएसएस भी उनको नापसंद करने लगा . जिस बीजेपी को उनने मेहनत से सींचा वही उनको जाने की सलाह दे रहा है. इतना कुछ होने के बाद भी आडवाणी जी हर बार एक ही बात कहते और सोचते हैं किसी तरह एक बार देश चलने का मौका मिल जाये. जनता के साथ पार्टी भी किसी नये नेता को चाहती है लेकिन आडवाणी जी जाने को तैयार ही नहीं हैं. ज्यादा तो नहीं लिखना चाहूँगा लेकिन अंत में एक एक बात कहूँगा आडवाणी जी अब तो बालहट छोड़िये और एक सम्मानपूर्वक विदाई ले लीजिए. सभी को लग रहा है की आपके तरकश में कोई तीर नहीं बचा है. और अगर आपको लगता है की आप पद और सत्ता हासिल कर लेंगे तो फिर देखिए. लेकिन हर रोज नया सवेरा होता है और सभी लोग नए तरह का सूरज देखना पसंद करते हैं.
May 25, 2012
धन के आगे बेबस राजनीति
झारखण्ड की राजनीति को लेकर बहुत दिनों से कुछ लिखने का मन हो रहा था. काफी विचार करता की आज कुछ लिख ही डालूँगा लेकिन विचार सही आकार ले नहीं पा रहे थे . लेकिन आज का मुहूर्त शायद बड़ा अच्छा है की आज मैं इस विषय पर कुछ लिखने जा रहा हूँ . अपने नाम के अनुरूप ही इस राज्य की राजनीति भी उलझी हुई है. सरकार बनती भी बड़ी मुश्किल से है और चलती भी बड़ी मुश्किल से है. पहले तो अपने दम पर सरकार बनाने की सोचता ही कोई नहीं है और अगर सोचता भी है तो उसका सपना-सपना ही रह जाता है. तो जनाब मैं बता दूँ की इसकी कारण से तो राजनीति के मामले में यह राज्य खास है. शायद ही कोई मुख्यमंत्री रहा हो जिसने अपना कार्यकाल पूरा किया हो. और तो और जिसने जितना भी समय सीएम आवास में काटा वह शायद ही कभी चैन की साँस ले पाया. हैं न यहाँ की राजनीति दिलचस्प. राज्य अपने को हमेशा कोसते रहता है की कोई आये और उसका उद्धार करे. लेकिन रामायण के सबरी की तरह यहाँ राम का अवतार हुआ ही कहाँ है. लूट, खसोट मची पड़ी है. हर किसी को कुबेर का खजाना हाथ लगा है, सब की निगाह उसे खाली करने पर लगी है . किस्मत का खेल यहाँ खूब हुआ है. कई खाकपति को अरबपति बनते देखा है इस राज्य ने. नरसिम्हा राव की सरकार बचाने को शिबू सोरेन ने पैसे लिए थे तो खूब हल्ला हंगामा मचा था देश में. लेकिन यहाँ तो बिना पैसे खर्च किए सरकार बनती ही नहीं है. दोष किसी एक पार्टी या लोगों का नहीं है दोषी तो यहाँ भरे पड़े हैं. हर कोई मलाई को बड़े ही टकटकी भरे निगाहों से देखता है और मौका मिलते ही हाथ साफ़ कर देता है . कहने को बीजेपी अपने को पाक साफ़ कहती है लेकिन इसका असली चरित्र यहाँ देखने को मिलता है. सरकार और सत्ता की इसकी भूख क्या है वह यहाँ स्पष्ट नजर आ जाता है. कांग्रेस का अवतार भी यहाँ बुरी आत्मा के रूप में ही हुआ है. किसी तरह सेज सजा मिल जाये यही उसकी कामना रहती है . अब जब दो बड़ी पार्टियाँ ही लाभ के लालच में हर घडी घुमती रहती है तो छोटी पार्टियाँ क्यूँ पीछे रहे. घर का बड़ा ही जब बिगड़ा है तो छोटा भी बिगड़ जाये तो कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए. जेएमम और अन्य पार्टियाँ तो इस फेर में ही रहती से है की कैसे कोई महाजन कहीं से आये और हमें कुछ मिल जाये. ईमान तो कब का बिक चुका है अब खुद को भी बेचने में परहेज़ नहीं रह गया है राजनेताओं को . कहिये कैसी है राजनीति इस प्रदेश की . जहाँ सत्ता के पहरेदार ही बिकने को हर हमेशा तैयार रहते हैं वहां की क्या स्थिति हो सकती है इसका अंदाजा हर किसी को हो हो चुका है. ट्रेड शब्द यहाँ हमेशा ऊफान पर रहता है .आखिर जब बाजार ही बिकने को तैयार बैठा है तो कोई व्यापारी क्यूँ परहेज़ करे. हर दल की जहाँ यही कोशिश रहती है की सत्ता में आओ और रेवड़ी का लुत्फ़ उठाओ. मैं तो अब इतना ही कहना चाहता हूँ की अगर दुसरे देशों के लोगों को भी यहाँ से चुनाव लड़ने की इजाजत दे दी जाये तो धनबल के कारन वह भी चुनाव जीत जाएँ. न भी जीतें तो भी एक बार किस्मत आजमाने इस कसीनो में जरुर आयेंगे. राजनीति को शर्मसार करने के लिए इतना ही काफी नहीं है. अगर नहीं है तो बता दीजिये और भी बहुत कुछ कर सकते हैं यहाँ के नेतागण. ज्यादा फिर किसी दिन आज तक के लिए इतना ही. एक बार सोचिएगा जरुर इस विषय पर वह भी गंभीर रूप से .
May 24, 2012
राजनीति का धनखंड: झारखण्ड
आजकल धन के बारे में देश में और देश के बाहर कुछ ज्यादा ही चर्चा हो रही है . हर तरफ धन की ही बात हो यह एक अजीब तरीके का अहसास दिलाता है . हम जैसे लोगों के लिए तो ऐसे जगह पर बहुत कम स्पेस बचता है. आखिर धन भी तो इस मायावी दुनिया का एक मजबूत स्तम्भ है . इसके बिना शायद ही किसी का काम चले. और अगर बात राजनीति की आती हो और चर्चा धन की ना हो यह तो हो ही नहीं सकता है. धन या अर्थ की राजनीति आज अहम स्थान लेती जा रही है. राजनीत के इस कड़ी में आज मैं झारखण्ड की राजनीति को लेकर चर्चा करूँगा. इस राज्य की स्थापना 2000 से ही यह अमिर राज्य का तमगा हासिल करने की सोचता था, लेकिन कहते हैं न की जिस जगह के राजनेताओं में लक्ष्य का अभाव हो उस जगह का विकास शायद ही कभी हो पाता है . धन की ऐसी माया पड़ी इस राज्य के नेताओं पर की कल तक जो खाने को तरसता था वह स्विस बैंक में खाताधारी हो गया. हैं न एक अजीब सी बिडम्बना, लेकिन यह सत्य है और इससे नाता नहीं तोडा जा सकता है. राज्य चाहे किसी मामले में आगे रहे न रहे लेकिन यहाँ के नेताओं और अधिकारियों के धन की तुलना में बहुत उद्योगपति भी पीछे छुट जाएँ तो ताज्जुब होने वाली कोई बात नहीं है. कोयले की लूट से तो सभी वाकिफ हैं लेकिन यहाँ जनता के निवाले को भी लूटा जा रहा है. देश का कोई भी पैसवाला इन्सान यहाँ से चुनाव जीतने का दावा कर सकता है. इसका तो प्रमाण मिल ही चुका है . पहले केडी सिंह चुनाव जीत जाते हैं तो कभी धूत और मिश्र जैसे लोग चुनाव जितने की की सोचते हैं . कभी प्रदेश के विधायक बिकने को आतुर रहते हैं तो कभी मंत्री. अब आप ही बताईये इस राज्य का क्या हो सकता है. अगर कोई दम लगाकर कहता है ही यहाँ सब बिकाऊ हैं तो क्या वह गलत कहता है. मुझे तो लगता है की हकीकत में बिकाऊ शब्द की परिभाषा यहाँ चरितार्थ होती है. कहने को तो इस राज्य को बने लगभग 12 साल हो चुके हैं और सत्ता और विपक्ष के कई लोगों के दमन में धन लेकर कार्य करने का दाग लग चुका है और यह आज भी जारी है. झारखण्ड को अगर धनखंड कहें तो कोई गलत बात नहीं होगी. आज बस इतना ही आगे फिर आऊंगा आपसे मिलने कुछ नई बात के साथ .
May 23, 2012
राजनीत या अर्थनीत ?
आजकल देश में राजनीति को लेकर चर्चा गरम है आप कहेंगे की यह तो सदा से ही रहता है. लेकिन यहाँ जो बाद बदली है वह यह क्या की आजकल राजनीति पहले जैसी नहीं रह गयी है. बहुत से लोग इसके पक्ष में तो बहुत विपक्ष में अपनी दलील देते हैं. एक बात तो बड़ी गौर करने वाली है वह यह की राजनीति और धन के बीच एक गजब की जुगलबंदी हो चूका है . बहुत से लोग तो कहते हैं की बिना धन के राजनीत चल ही नहीं सकती. चुनाव के समय इसका नजारा बड़ा ही शानदार नजर आता है. धन का क्या महत्व है इसका सबसे अच्छा दीदार चुनाव के समय ही दिखता है . बड़े चुनाव ही नहीं छोटे चुनावों में भी इसका खूब जोर चलता है. अभी बिहार में नगरपालिका का चुनाव हुआ है. मैं इस चुनाव में कई चीजों का दर्शक रहा. इन चुनावों को देखने के बाद मैंने जाना की चुनाव का मतलब ही है धनबल. इस अर्थ में मैंने एक चीज़ सीखी की अब राजनीति सिर्फ राजनीति ही नहीं रह गई है इसमें बहुत तरह की अनीति का भी समावेश हो गया है. राजनीति की जगह अर्थनीति ने ले ली है. बिहार चुनाव में मैंने देखा की एक छोटे से वार्ड के चुनाव में भी लाखों का खर्चा आने लगा है . मतदाता अब इस मामले में ज्यादा समझदार हो गया है. वह अब हर किसी से पैसा लेने लगा है . चुनाव में तो उसकी किस्मत ही खुल जाती है , उसके लिए धन कमाने का यह एक बेहतरीन होता है जिसे वह जाने देना नहीं चाहता है . अब आप ही कहें, कैसे न कहा जाये इस राजनीत को अर्थनीत. अब बाहुबल का स्थान धनबल ने ले लिया है . पैसे वाले चुनाव में सफल हो जाएँ को किसी को चौंकना नहीं चाहिए . हर स्तर पर धन का जोर है. इस चुनाव में कई लोगों ने मुझसे कहा दादा पैसा जब मिल रहा है तो हर किसी से क्यूँ ने लिया जाये . मुझे बड़ी ही तकलीफ हुई और शर्म भी आई की क्या ऐसे ही हमारा देश प्रगति करेगा. कई लोगों को तो मैंने समझाया और कई को समझाने के प्रयास में हूँ . अब देखता हूँ कितना सफल हो पता हूँ लेकिन एक बात जो मेरे जेहन से निकलती नहीं है वह यह की क्या राजनीति ऐसे जगह आ पहुंची है . इस विषय पर हम सभी को मिलकर काम करना चाहिए. बस आज इतना ही अगली बार फिर किसी मुद्दे को लेकर हाजिर होऊंगा.
May 22, 2012
जेपी, जॉर्ज, नीतीश.....?
आज बहुत दिनों के बाद कुछ लिखने बैठा हूँ . काफी दिनों से चाहत थी कुछ लिखने की लेकिन किसी कारणवश लिख नहीं पा रहा था. लेकिन आज कुछ लिख कर ही दम लूँगा. मन में तरह-तरह के सवाल हैं , विषय भी काफी हैं लेकिन मैं आज बिहार को लेकर कुछ लिखने जा रहा हूँ. आज मैं बिहार में राजनीति की धुरी बन चुकी पार्टी जनता दल यू के बारे में लिखने की कोशिश करता हूँ . जेपी, जॉर्ज और फिर नीतीश. पार्टी की राजनीत इन्हीं लोगों के आसपास घूमती रही है और फिलवक्त घूम रही है . लेकिन मुझे लगता है आने वाले समय में संक्रमण आने वाला है. जेपी के पाठशाला और जॉर्ज के मार्गदर्शन में पार्टी में एक पीढ़ी विकसित हुई जो अभी अपने उफान पर है. लेकिन एक कहावत है की जिस नदी में तूफान आता है पानी भी उसी का सूखता है . काफी संघर्ष के बाद जब सत्ता का सुख मिलता है तो लोग यह भूलने लगते हैं आगे भी नई पौध लगानी है. अगर हकीकत को देखें तो पार्टी के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है. कैडर तो पार्टी के पास है नहीं और दुसरे दल के नेता भी काफी संख्या में शरण लिए हुए हैं . तो ऐसे में बात उठनी लाज़मी है की पार्टी में आखिर ऐसा हो क्यूँ रहा है . इसका एक ही जवाब है सता. जेपी के पाठशाला से निकले छात्र आज राजनीत के मुकाम पर हैं . लेकिन आज शायद ही आपको कोई मिले जो उस राह पर जाता दिखाई दे . आखिर ऐसा क्यूँ ? यह एक यक्ष प्रश्न है? नीतीश के बाद पार्टी का क्या होगा यह तो आने वाले दिनों में साफ़ हो ही जायेगा लेकिन एक बात जो साफ़ है वह यह की पार्टी की स्थिति इस मामले में कमजोर है. जो जॉर्ज अपने जवानी के दिनों में सिंह की तरह दहाड़ मारते थे आज क्या पार्टी के पास है कोई ऐसा ? इसका उत्तर भी नकारात्मक ही आएगा. क्या नीतीश के तरह कोई है जो देश की राजनीत को प्रभावित कर सके , इसका उत्तर भी नकारात्मक ही आएगा. आखिर पार्टी की स्थिति ऐसी कैसे हो रही है आर इस ओर किसी का क्यूँ नहीं जा रहा है . एक विचार करने वाली बात है .अगर ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब पार्टी एक नाम भर की पार्टी रह जाए. पार्टी के कर्ता-धर्ता आर विधाता को इस ओर ध्यान देना चाहिये. जेपी, जॉर्ज, नीतीश.....?
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